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अध॑ स्मास्य पनयन्ति॒ भासो॒ वृथा॒ यत्तक्ष॑दनु॒याति॑ पृ॒थ्वीम्। स॒द्यो यः स्य॒न्द्रो विषि॑तो॒ धवी॑यानृ॒णो न ता॒युरति॒ धन्वा॑ राट् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha smāsya panayanti bhāso vṛthā yat takṣad anuyāti pṛthvīm | sadyo yaḥ syandro viṣito dhavīyān ṛṇo na tāyur ati dhanvā rāṭ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। स्म॒। अ॒स्य॒। प॒न॒य॒न्ति॒। भासः॑। वृथा॑। यत्। तक्ष॑त्। अ॒नु॒ऽयाति॑। पृ॒थ्वीम्। स॒द्यः। यः। स्य॒न्द्रः। विऽसि॑तः। धवी॑यान्। ऋ॒णः। न। ता॒युः। अति॑। धन्व॑। राट् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:12» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कैसी बिजुली है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (यः) जो (स्यन्द्रः) बहानेवाला (विषितः) व्याप्त (धवीयान्) अतिशय कम्पाने और (वृथा) व्यर्थ (ऋणः) प्राप्त करानेवाला (तायुः) चोर (न) जैसे वैसे वर्त्तमान अग्नि (यत्) जिन (भासः) प्रकाशों को (तक्षत्) सूक्ष्म करता है (पृथ्वीम्) पृथिवी के (सद्यः) शीघ्र (अनुयाति) पीछे चलता है (अध) इसके अनन्तर (स्म) ही (अस्य) इस राजा के गुणों की विद्वान् जन (पनयन्ति) स्तुति करते हैं, उसको जान कर और उसकी विद्या को प्राप्त होकर (राट्) राजा (अति, धन्वा) धनुर्वेद का अत्यन्त जाननेवाला होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जो आप लोग बिजुली की विद्या को जानकर यन्त्रों से घर्षित कर इस को उत्पन्न करके इस बिजुली के साथ मनुष्य आदिकों को युक्त करें तो यह अति कम्पानेवाली और वेगवती होवे और स्वच्छ काच के स्वभ्र पट्टे के अन्तर्गत मनुष्य को अलग करावें तो यह बिजुली शीघ्र भूमि में प्राप्त होती हैं, सो यह सर्वत्र व्याप्त और प्रशंसा करने योग्य गुणवाली है, जिससे राजा लोग शत्रुओं को सहज से जीतकर धनवान् होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कीदृशी विद्युदस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यः स्यन्द्रो विषितः धवीयान् वृथर्णस्तायुर्न वर्त्तमानोऽग्निर्यद्या भासस्तक्षत्पृथ्वीं सद्योऽनुयात्यध स्मास्य गुणान् विद्वांसः पनयन्ति तं विदित्वा तस्य विद्यां प्राप्य राडति धन्वाऽनुजानाति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अनन्तरम् (स्म) एव (अस्य) राज्ञः (पनयन्ति) स्तुवन्ति (भासः) दीप्तीः (वृथा) (यत्) याः (तक्षत्) तनूकरोति (अनुयाति) अनुगच्छति (पृथ्वीम्) भूमिम् (सद्यः) (यः) (स्यन्द्रः) प्रस्रावकः (विषितः) व्याप्तः (धवीयान्) अतिशयेन कम्पकः (ऋणः) प्रापकः (न) इव (तायुः) स्तेनः। तायुरिति स्तेननाम। (निघं०३.२४) (अति) (धन्वा) धनुर्वेदम् (राट्) यो राजते ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यदि भवन्तो विद्युद्विद्यां विज्ञाय यन्त्रैर्घर्षयित्वैनामुत्पाद्यैतया सह मनुष्यादीन् योजयेयुस्तर्हीयमतिकम्पिका वेगवती स्यात्। यदि काचाभ्रपटलान्तर्मनुष्यं पृथक्कारयेयुस्तर्हीयं क्षिप्रं भूमिं गच्छति सेयं सर्वत्र व्याप्ता प्रशंसनीयगुणास्ति यया राजानः शत्रून् सहजतया जित्वा श्रीमन्तो जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जर तुम्ही विद्युत विद्या जाणून यंत्राद्वारे घर्षणाने उत्पन्न केलेल्या विद्युत विद्येबरोबर माणसांना युक्त केल्यास ती अतिकंपित करणारी व वेगवान बनते व स्वच्छ काचेच्या अभ्रपटलातून माणसाला पृथक केल्यास ही विद्युत शीघ्र भूमीत जाते. ती सर्वत्र व्याप्त असून प्रशंसनीय गुणांची आहे. जिच्याद्वारे राजे लोक शत्रूंना जिंकून धनवान होतात. ॥ ५ ॥