मध्ये॒ होता॑ दुरो॒णे ब॒र्हिषो॒ राळ॒ग्निस्तो॒दस्य॒ रोद॑सी॒ यज॑ध्यै। अ॒यं स सू॒नुः सह॑स ऋ॒तावा॑ दू॒रात्सूर्यो॒ न शो॒चिषा॑ ततान ॥१॥
madhye hotā duroṇe barhiṣo rāḻ agnis todasya rodasī yajadhyai | ayaṁ sa sūnuḥ sahasa ṛtāvā dūrāt sūryo na śociṣā tatāna ||
मध्ये॑। होता॑। दु॒रो॒णे। ब॒र्हिषः॑। राट्। अ॒ग्निः। तो॒दस्य॑। रोद॑सी॒ इति॑। यज॑ध्यै। अ॒यम्। सः। सू॒नुः। सह॑सः। ऋ॒तऽवा॑। दू॒रात्। सूर्यः॑। न। शो॒चिषा॑। त॒ता॒न॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले बारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे मनुष्या ! यथा दुरोणे बर्हिषो मध्ये होता तोदस्य राळग्नी रोदसी यजध्यै ततान तथा सोऽयं सहसः सूनुर्ऋतावा दूराच्छोचिषा सूर्यो न विद्याप्रकाशं ततान ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वान, राजा, प्रजा यांचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.