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मध्ये॒ होता॑ दुरो॒णे ब॒र्हिषो॒ राळ॒ग्निस्तो॒दस्य॒ रोद॑सी॒ यज॑ध्यै। अ॒यं स सू॒नुः सह॑स ऋ॒तावा॑ दू॒रात्सूर्यो॒ न शो॒चिषा॑ ततान ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

madhye hotā duroṇe barhiṣo rāḻ agnis todasya rodasī yajadhyai | ayaṁ sa sūnuḥ sahasa ṛtāvā dūrāt sūryo na śociṣā tatāna ||

पद पाठ

मध्ये॑। होता॑। दु॒रो॒णे। ब॒र्हिषः॑। राट्। अ॒ग्निः। तो॒दस्य॑। रोद॑सी॒ इति॑। यज॑ध्यै। अ॒यम्। सः। सू॒नुः। सह॑सः। ऋ॒तऽवा॑। दू॒रात्। सूर्यः॑। न। शो॒चिषा॑। त॒ता॒न॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:12» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले बारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (दुरोणे) गृह में (बर्हिषः) अवकाश के (मध्य) मध्य में (होता) आदान वा ग्रहण करनेवाला (तोदस्य) व्यथा के सम्बन्ध में (राट्) प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (यजध्यै) मिलने को (ततान) विस्तृत करता है, वैसे (सः) सो (अयम्) यह (सहसः) सहनशील का (सूनुः) अपत्य (ऋतावा) सत्य की याचना करनेवाला (दूरात्) दूर से (शोचिषा) प्रकाश से (सूर्य्यः) सूर्य्य (न) जैसे वैसे विद्या के प्रकाश को विस्तृत करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वेदविहित यज्ञ आदि कर्म्मों के करनेवाले जन सूर्य्य के सदृश उत्तम कर्म्मों के प्रकाशक होवें, वे सब के सुख बढ़ाने को समर्थ हो सकते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा दुरोणे बर्हिषो मध्ये होता तोदस्य राळग्नी रोदसी यजध्यै ततान तथा सोऽयं सहसः सूनुर्ऋतावा दूराच्छोचिषा सूर्यो न विद्याप्रकाशं ततान ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मध्ये) (होता) (दुरोणे) गृहे (बर्हिषः) अवकाशस्य (राट्) यो राजते (अग्निः) पावकः (तोदस्य) व्यथायाः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (यजध्यै) यष्टुं सङ्गन्तुम् (अयम्) (सः) (सूनुः) अपत्यम् (सहसः) सहनशीलस्य (ऋतावा) य ऋतं सत्यं वनुते याचते सः (दूरात्) (सूर्य्यः) (न) इव (शोचिषा) प्रकाशेन (ततान) विस्तृणोति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये कर्म्मठाः सूर्य्यवत्सुकर्म्मप्रकाशकाः स्युस्ते सर्वेषां सुखानि वर्धयितुं शक्नुवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान, राजा, प्रजा यांचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे वेदानुसार यज्ञ इत्यादी कर्म करणारे लोक असतात ते सूर्याप्रमाणे उत्तम कर्माचे प्रकाशक असतात. ते सर्वांच्या सुखाची वृद्धी करण्यास समर्थ होऊ शकतात. ॥ १ ॥