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अदि॑द्युत॒त्स्वपा॑को वि॒भावाग्ने॒ यज॑स्व॒ रोद॑सी उरू॒ची। आ॒युं न यं नम॑सा रा॒तह॑व्या अ॒ञ्जन्ति॑ सुप्र॒यसं॒ पञ्च॒ जनाः॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adidyutat sv apāko vibhāvāgne yajasva rodasī urūcī | āyuṁ na yaṁ namasā rātahavyā añjanti suprayasam pañca janāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अदि॑द्युतत्। सु। अपा॑कः। वि॒ऽभावा॑। अग्ने॑। यज॑स्व। रोद॑सी॒ इति॑। उ॒रू॒ची इति॑। आ॒युम्। न। यम्। नम॑सा। रा॒तऽह॑व्याः। अ॒ञ्जन्ति॑। सु॒ऽप्र॒यस॑म्। पञ्च॑। जनाः॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:11» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्तमान विद्वज्जन ! (रातहव्याः) दिये गये देने योग्य (पञ्च) पाँच (जनाः) प्राणों के सदृश वर्त्तमान जन (नमसा) अन्न आदि से (यम्) जिस (सुप्रयसम्) उत्तम प्रकार प्रयत्न करनेवाले को (अञ्जन्ति) अच्छे प्रकार प्रकट करते हैं वह (सु) उत्तम प्रकार (अपाकः) नहीं परिपक्व (विभावा) अत्यन्त दीप्तिमान् जन (आयुम्) जीवन को (न) जैसे वैसे (अदिद्युतत्) प्रकाशित होता है, इस प्रकार आप (उरूची) बहुतों को प्राप्त होनेवाले (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (यजस्व) उत्तम प्रकार प्राप्त हों ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जिस प्रकार से पाँच प्राण शरीर को धारण करते हैं, वैसे ही नियमित आहार और विहार करनेवाले जन शरीर की अति कालपर्य्यन्त रक्षा करते हैं, वैसे ही विद्वानों के उपदेश विद्या को अतिकाल पर्य्यन्त स्थिर होनेवाली करते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! रातहव्याः पञ्च जना नमसा यं सुप्रयसमञ्जन्ति स स्वपाको विभावाऽऽयुन्नादिद्युतदेवं त्वमुरूची रोदसी यजस्व ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अदिद्युतत्) द्योतते (सु) शोभने (अपाकः) अपरिपक्वः (विभावा) विशेषदीप्तिमान् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान विद्वन् (यजस्व) सङ्गच्छस्व (रोदसी) भूमिप्रकाशौ (उरूची) ये बहूनञ्चतस्ते (आयुम्) जीवनम् (न) इव (यम्) (नमसा) अन्नाद्येन (रातहव्याः) दत्ता दातव्याः (अञ्जन्ति) सुप्रकटयन्ति (सुप्रयसम्) सुष्ठु प्रयत्नवन्तम् (पञ्च) (जनाः) प्राणा इव वर्त्तमानाः ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा पञ्च प्राणाः शरीरं धरन्ति तथैव युक्ताहारविहाराः शरीरं चिरं रक्षन्ति तथैव विद्वदुपदेशा विद्यां चिरं स्थायिनीं कुर्वन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या प्रकारे पाच प्राण शरीराला धारण करतात, नियमित आहार-विहार करणारे लोक शरीराचे दीर्घकालापर्यंत रक्षण करतात तसाच विद्वानांचा उपदेश, विद्या दीर्घकालापर्यंत स्थिर करणारे असतात. ॥ ४ ॥