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पी॒पाय॒ स श्रव॑सा॒ मर्त्ये॑षु॒ यो अ॒ग्नये॑ द॒दाश॒ विप्र॑ उ॒क्थैः। चि॒त्राभि॒स्तमू॒तिभि॑श्चि॒त्रशो॑चिर्व्र॒जस्य॑ सा॒ता गोम॑तो दधाति ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pīpāya sa śravasā martyeṣu yo agnaye dadāśa vipra ukthaiḥ | citrābhis tam ūtibhiś citraśocir vrajasya sātā gomato dadhāti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पी॒पाय॑। सः। श्रव॑सा। मर्त्ये॑षु। यः। अ॒ग्नये॑। द॒दाश॑। विप्रः॑। उ॒क्थैः। चि॒त्राभिः॑। तम्। ऊ॒तिऽभिः॑। चि॒त्रऽशो॑चिः। व्र॒जस्य॑। सा॒ता। गोऽम॑तः। द॒धा॒ति॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:10» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (यः) जो (गोमतः) अतिशय स्तुति करनेवाला और (चित्रशोचिः) अनेक प्रकार का प्रकाश जिसका ऐसा (विप्रः) बुद्धिमान् (उक्थैः) प्रशंसित कर्मों और (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षादिकों से (मर्त्येषु) मनुष्य आदिकों में (अग्नये) अग्नि के लिये (श्रवसा) अन्नादि से (पीपाय) बढ़ाता और (ददाश) देता है (सः) वह (व्रजस्य) चलते हैं सघन जल जिसमें उस मेघ के (साता) संग्राम से (दधाति) धारण करता है (तम्)उसको आप लोग जानिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस अग्नि में अद्भुत गुण, कर्म्म, स्वभाव हैं, उसको अच्छे प्रकार जान कर संप्रयोग करो अर्थात् काम में लाओ ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यो गोमतश्चित्रशोचिर्विप्र उक्थैश्चित्राभिरूतिभिश्च मर्त्येष्वग्नये श्रवसा पीपाय ददाश स व्रजस्य साता दधाति तं यूयं विजानीत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पीपाय) वर्धयति (सः) (श्रवसा) अन्नाद्येन (मर्त्येषु) मनुष्यादिषु (यः) (अग्नये) (ददाश) ददाति (विप्रः) मेधावी (उक्थैः) प्रशंसितैः कर्म्मभिः (चित्राभिः) अद्भुताभिः (तम्) (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (चित्रशोचिः) चित्रं विविधं शोचिः प्रकाशो यस्य सः (व्रजस्य) व्रजन्ति घना यस्मिंस्तस्य मेघस्य (साता) सङ्ग्रामेण (गोमतः) अतिशयितस्तोता (दधाति) ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्मिन्नग्नावद्भुता गुणकर्म्मस्वभावाः सन्ति तं यथावद्विदित्वा सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्या अग्नीत अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाव आहेत त्याला चांगल्या प्रकारे जाणून प्रयोगात आणा. ॥ ३ ॥