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तवा॒हम॑ग्न ऊ॒तिभि॑र्मि॒त्रस्य॑ च॒ प्रश॑स्तिभिः। द्वे॒षो॒युतो॒ न दु॑रि॒ता तु॒र्याम॒ मर्त्या॑नाम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tavāham agna ūtibhir mitrasya ca praśastibhiḥ | dveṣoyuto na duritā turyāma martyānām ||

पद पाठ

तव॑। अ॒हम्। अ॒ग्ने॒। ऊ॒तिऽभिः॑। मि॒त्रस्य॑। च॒। प्रश॑स्तिऽभिः। द्वे॒षः॒ऽयुतः॑। न। दुः॒ऽइ॒ता। तु॒र्याम॑। मर्त्या॑नाम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:9» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:6 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मित्रभाव से उक्त विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् (अहम्) मैं (मित्रस्य) मित्र (तव) आपकी (ऊतिभिः) रक्षा आदिकों से और (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाओं से (च) भी प्रशंसित होऊँ, वैसे आप हूजिये और सब हम लोग मिल कर (द्वेषोयुतः) द्वेषयुक्तों के (न) सदृश (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के (दुरिता) दुःख से प्राप्त हुए दोषों की (तुर्याम) हिंसा करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे मित्र मित्र की प्रशंसा करता और शत्रुजन हित का नाश करते हैं, वैसे ही मित्रता करके मनुष्यों के दुःखों का हम नाश करें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मित्रभावेनोक्तविषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! अहं मित्रस्य तवोतिभिः प्रशस्तिभिश्च प्रशंसितो भवेयं तथा त्वं भव सर्वे वयं मिलित्वा द्वेषोयुतो न मर्त्यानां दुरिता तुर्य्याम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) (अहम्) (अग्ने) विद्वन् (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (मित्रस्य) (च) (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाभिः (द्वेषोयुतः) द्वेषयुक्ताः (न) इव (दुरिता) दुःखेनेता प्राप्तानि (तुर्याम) हिंस्याम (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा मित्रं मित्रस्य प्रशंसां करोति शत्रवो हितं घ्नन्ति तथैव मित्रतां कृत्वा मनुष्याणां दुःखानि वयं हिंस्येम ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा मित्र मित्राची प्रशंसा करतो व शत्रू हिताचा नाश करतात तसेच मैत्री करून माणसांच्या दुःखाचा आम्ही नाश करावा. ॥ ६ ॥