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उ॒त स्म॒ यं शिशुं॑ यथा॒ नवं॒ जनि॑ष्टा॒रणी॑। ध॒र्तारं॒ मानु॑षीणां वि॒शाम॒ग्निं स्व॑ध्व॒रम् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta sma yaṁ śiśuṁ yathā navaṁ janiṣṭāraṇī | dhartāram mānuṣīṇāṁ viśām agniṁ svadhvaram ||

पद पाठ

उ॒त। स्म॒। यम्। शिशु॑म्। य॒था॒। नव॑म्। जनि॑ष्ट। अ॒रणी॒ इति॑। ध॒र्तार॑म्। मानु॑षीणाम्। वि॒शाम्। अ॒ग्निम्। सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:9» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे माता और पिता (नवम्) नवीन (शिशुम्) बालक को (जनिष्ट) उत्पन्न करते हैं, वैसे (स्म) ही (यम्) जिसको (अरणी) काष्ठविशेषों के सदृश (मानुषीणाम्) मनुष्य आदि (विशाम्) प्रजाओं के (धर्त्तारम्) धारण करनेवाले (उत) भी (स्वध्वरम्) उत्तम प्रकार अहिंसारूप धर्म को प्राप्त (अग्निम्) अग्नि को विद्वान् जन उत्पन्न करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता-पिता श्रेष्ठ सन्तान को उत्पन्न करके सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे विद्वान् जन बिजुलीरूप अग्नि को उत्पन्न करके ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविषयमाह ॥

अन्वय:

यथा मातापितरौ नवं शिशुं जनिष्ट तथा स्म यमरणी मानुषीणां विशां धर्त्तारमुत स्वध्वरमग्निं विद्वांसो जनयन्तु ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (स्म) (यम्) (शिशुम्) बालकम् (यथा) (नवम्) नवीनम् (जनिष्ट) जनयतः (अरणी) काष्ठविशेषाविव (धर्त्तारम्) (मानुषीणाम्) मनुष्यादीनाम् (विशाम्) प्रजानाम् (अग्निम्) (स्वधरम्) सुष्ठ्वहिंसाधर्मं प्राप्तम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा मातापितरौ श्रेष्ठं सन्तानं जनयित्वा सुखमाप्नुतस्तथा विद्वांसो विद्युतमग्निमुत्पाद्यैश्वर्य्यमाप्नुवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे माता-पिता श्रेष्ठ संतानांना जन्म देऊन सुखी होतात तसे विद्वान लोक विद्युतरूपी अग्नी उत्पन्न करून ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥