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इन्द्रा॑ग्नी॒ यमव॑थ उ॒भा वाजे॑षु॒ मर्त्य॑म्। दृ॒ळ्हा चि॒त्स प्र भे॑दति द्यु॒म्ना वाणी॑रिव त्रि॒तः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāgnī yam avatha ubhā vājeṣu martyam | dṛḻhā cit sa pra bhedati dyumnā vāṇīr iva tritaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑ग्नी इति॑। यम्। अव॑थः। उ॒भा। वाजे॑षु। मर्त्य॑म्। दृ॒ळ्हा। चि॒त्। सः। प्र। भे॒द॒ति॒। द्यु॒म्ना। वाणीः॑ऽइव। त्रि॒तः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:86» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले छियासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली के सदृश अध्यापक और उपदेशको ! तुम (उभा) दोनों (वाजेषु) संग्रामों में (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य की (अवथः) रक्षा करते हो (सः) वह (चित्) भी (त्रितः) तीन अर्थात् अध्यापन, उपदेशन और रक्षण से (वाणीरिव) जैसे वाणियों का वैसे (दृळ्हा) स्थिर (द्युम्ना) धनों वा यशों का (प्र, भेदति) अत्यन्त भेद करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जहाँ धार्मिक, विद्वान्, शूरवीर, बलिष्ठ और शिक्षक हैं, वहाँ पर कोई भी नहीं दुःख को प्राप्त होता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्राग्नी इवाऽध्यापकोपदेशकौ ! युवामुभा वाजेषु यं मर्त्यमवथः स चित्त्रितो वाणीरिव दृळ्हा द्युम्ना प्र भेदति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राग्नी) वायुविद्युताविवाध्यापकोपदेशकौ (यम्) (अवथः) रक्षथः (उभा) (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (मर्त्यम्) मनुष्यम् (दृळ्हा) स्थिराणि (चित्) अपि (सः) (प्र) (भेदति) भिनत्ति (द्युम्ना) धनानि यशांसि वा (वाणीरिव) (त्रितः) त्रिभ्योऽध्यापनोपदेशनरक्षणेभ्यः ॥१॥
भावार्थभाषाः - यत्र धार्मिका विद्वांसः शूरा बलिष्ठाः शिक्षकाश्च सन्ति तत्र कोऽपि न दुःखं प्राप्नोतीति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, अग्नी व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जेथे धार्मिक, विद्वान, शूर, बलवान व शिक्षक असतात तेथे कुणालाही दुःख प्राप्त होत नाही. ॥ १ ॥