इन्द्रा॑ग्नी॒ यमव॑थ उ॒भा वाजे॑षु॒ मर्त्य॑म्। दृ॒ळ्हा चि॒त्स प्र भे॑दति द्यु॒म्ना वाणी॑रिव त्रि॒तः ॥१॥
indrāgnī yam avatha ubhā vājeṣu martyam | dṛḻhā cit sa pra bhedati dyumnā vāṇīr iva tritaḥ ||
इन्द्रा॑ग्नी इति॑। यम्। अव॑थः। उ॒भा। वाजे॑षु। मर्त्य॑म्। दृ॒ळ्हा। चि॒त्। सः। प्र। भे॒द॒ति॒। द्यु॒म्ना। वाणीः॑ऽइव। त्रि॒तः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले छियासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥
हे इन्द्राग्नी इवाऽध्यापकोपदेशकौ ! युवामुभा वाजेषु यं मर्त्यमवथः स चित्त्रितो वाणीरिव दृळ्हा द्युम्ना प्र भेदति ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, अग्नी व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.