इ॒मामू॒ नु क॒वित॑मस्य मा॒यां म॒हीं दे॒वस्य॒ नकि॒रा द॑धर्ष। एकं॒ यदु॒द्ना न पृ॒णन्त्येनी॑रासि॒ञ्चन्ती॑र॒वन॑यः समु॒द्रम् ॥६॥
imām ū nu kavitamasya māyām mahīṁ devasya nakir ā dadharṣa | ekaṁ yad udnā na pṛṇanty enīr āsiñcantīr avanayaḥ samudram ||
इ॒माम्। ऊँ॒ इति॑। नु। क॒विऽत॑मस्य। मा॒याम्। म॒हीम्। दे॒वस्य॑। नकिः॑। आ। द॒ध॒र्ष॒। एक॑म्। यत्। उ॒द्ना। न। पृ॒णन्ति॑। एनीः॑। आ॒ऽसि॒ञ्चन्तीः॑। अ॒वन॑यः। स॒मु॒द्रम् ॥६॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्याः किङ्कुर्युरित्याह ॥
हे मनुष्या ! य इमां कवितमस्य देवस्य मायामु महीं कोऽपि नु नकिराऽऽदधर्ष यद्या उद्ना नैनीरासिञ्चन्तीरवनय एकं समुद्रं पृणन्ति ता यूयं यथावद्विजानीत ॥६॥