वांछित मन्त्र चुनें

बळि॒त्था पर्व॑तानां खि॒द्रं बि॑भर्षि पृथिवि। प्र या भूमिं॑ प्रवत्वति म॒ह्ना जि॒नोषि॑ महिनि ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

baḻ itthā parvatānāṁ khidram bibharṣi pṛthivi | pra yā bhūmim pravatvati mahnā jinoṣi mahini ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बट्। इ॒त्था। पर्व॑तानाम्। खि॒द्रम्। बि॒भ॒र्षि॒। पृ॒थि॒वि॒। प्र। या। भूमि॑म्। प्र॒व॒त्व॒ति॒। म॒ह्ना। जि॒नोषि॑। म॒हि॒नि॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:84» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले चौरासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रवत्वति) अत्यन्त नीचे स्थान से युक्त (महिनि) आदर करने योग्य (पृथिवि) भूमि के सदृश वर्त्तमान ! (या) जो तुम (पर्वतानाम्) मेघों के (मह्ना) महत्त्व से (भूमिम्) भूमि को धारण करती (इत्था) इस प्रकार से (बट्) सत्य को जिस कारण (बिभर्षि) धारण करती हो तथा (खिद्रम्) दीनता को (प्र, जिनोषि) विशेष करके नष्ट करती हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे भूमि पर पर्वत स्थिर होकर वर्त्तमान हैं, वैसे जिनके हृदय में धर्म आदि श्रेष्ठ व्यवहार हैं, वे आदर करने योग्य होते हैं ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे प्रवत्वति महिनि पृथिवीव वर्त्तमाने ! या त्वं पर्वतानां मह्ना भूमिं धरसीत्था बट् सत्यं यतो बिभर्षि खिद्रं प्र जिनोषि तस्मात् सत्कर्त्तव्याऽसि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बट्) सत्यम्। बडिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (इत्था) अनेन प्रकारेण (पर्वतानाम्) मेघानाम् (खिद्रम्) दैन्यम् (बिभर्षि) (पृथिवी) भूमिवद्वर्त्तमाने (प्र) (या) (भूमिम्) (प्रवत्वति) प्रवणदेशयुक्ते (मह्ना) महत्त्वेन (जिनोषि) (महिनि) पूज्ये ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा भूमौ शैलाः स्थिरा वर्त्तन्ते तथा येषां हृदि धर्म्मादयः सद्व्यवहारा वर्त्तन्ते ते पूज्या जायन्ते ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मेघ, विद्वान व स्त्रीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे भूमीवर पर्वत स्थिर असतात तसे ज्यांच्या हृदयात धर्म इत्यादी श्रेष्ठ व्यवहार असतात. ते आदरणीय असतात. ॥ १ ॥