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ए॒षा व्ये॑नी भवति द्वि॒बर्हा॑ आविष्कृण्वा॒ना त॒न्वं॑ पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑ति सा॒धु प्र॑जान॒तीव॒ न दिशो॑ मिनाति ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā vyenī bhavati dvibarhā āviṣkṛṇvānā tanvam purastāt | ṛtasya panthām anv eti sādhu prajānatīva na diśo mināti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा। विऽए॑नी। भ॒व॒ति॒। द्वि॒ऽबर्हाः॑। आ॒विः॒ऽकृ॒ण्वा॒ना। त॒न्व॑म्। पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॑। पन्था॑म्। अनु॑। ए॒ति॒। सा॒धु। प्र॒जा॒न॒तीऽइ॑व। न। दिशः॑। मि॒ना॒ति॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:80» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यायुक्त स्त्रि ! जैसे (एषा) यह प्रातर्वेला (पुरस्तात्) प्रथम (तन्वम्) शरीर को (आविष्कृण्वाना) और संपूर्ण रूपवाले द्रव्यों की प्रकटता करती हुई (द्विबर्हाः) दिन और रात्रि से बढ़ानेवाली (व्येनी) विशेष हरिणी के सदृश वेगयुक्त (भवति) होती है और (ऋतस्य) सत्य के (पन्थाम्) मार्ग की (अनु, एति) अनुगामिनी होती है और (साधु) उत्तम विज्ञान को (प्रजानतीव) विशेष करके जानती हुई सी (दिशः) दिशाओं का (न) नहीं (मिनाति) नाश करती है, वैसा तू वर्त्ताव कर ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सती स्त्री गृहाश्रम के मार्ग को प्रकाशित करके सम्पूर्ण सुखों को प्रकट करती है, वैसे ही प्रातर्वेला वर्त्तमान है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विदुषि स्त्रि ! यथैषोषाः पुरस्तात्तन्वमाविष्कृण्वाना द्विबर्हा व्येनी भवति। ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव दिशो न मिनाति तथा त्वं वर्त्तस्व ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) (व्येनी) या विशिष्टमृगीवद्वेगवती (भवति) (द्विबर्हाः) या द्वाभ्यां रात्रिदिनाभ्यां बृंहयति वर्धयति (आविष्कृण्वाना) सर्वेषां मूर्तिमतां द्रव्याणां प्राकट्यं सम्पादयन्ती (तन्वम्) शरीरम् (पुरस्तात्) (ऋतस्य) सत्यस्य (पन्थाम्) मार्गम् (अनु) (एति) अनुगच्छति (साधु) उत्तमं विज्ञानम् (प्रजानतीव) (न) निषेधे (दिशः) (मिनाति) हिनस्ति ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सती स्त्री गृहाश्रमस्य मार्गं प्रकाश्य सर्वाणि सुखानि प्रकटयति तथैवोषा वर्त्तते ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सात्त्विक स्त्री गृहस्थाश्रमाचा मार्ग सुकर करते व संपूर्ण सुख देते. तशीच प्रातर्वेला असते. ॥ ४ ॥