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सम॒श्विनो॒रव॑सा॒ नूत॑नेन मयो॒भुवा॑ सु॒प्रणी॑ती गमेम। आ नो॑ र॒यिं व॑हत॒मोत वी॒राना विश्वा॑न्यमृता॒ सौभ॑गानि ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam aśvinor avasā nūtanena mayobhuvā supraṇītī gamema | ā no rayiṁ vahatam ota vīrān ā viśvāny amṛtā saubhagāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। अ॒श्विनोः। अव॑सा। नूत॑नेन। म॒यः॒ऽभुवा॑। सु॒ऽप्रनी॑ती। ग॒मे॒म॒। आ। नः॒। र॒यिम्। व॒ह॒त॒म्। आ। उ॒त। वी॒रान्। आ। विश्वा॑नि। अ॒मृ॒ता॒। सौभ॑गानि ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:76» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ और विद्वानों के सङ्ग से ऐश्वर्य्य को प्राप्त करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अश्विनोः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के सदृश राजा और उपदेशक के (नूतनेन) नवीन (अवसा) अन्न आदि और (मयोभुवा) सुखकारक से और (सुप्रणीती) उत्तम नीति से (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) धन को (आ) सब प्रकार (वहतम्) प्राप्त कराते हुए को (वीरान्) वीरों को (उत) और (विश्वानि) सम्पूर्ण (अमृता) स्वादु जलों और (सौभगानि) उत्तम धनादि ऐश्वर्यों के भावरूपों को (आ) सब प्रकार प्राप्त कराते हुए को हम लोग (सम्, आ, गमेम) उत्तम प्रकार से प्राप्त होवें, वैसे आप लोग भी प्राप्त होओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो लोग यथार्थवक्ताओं के उपदेश से राजा की न्यायव्यवस्था के साथ वर्त्ताव करके न्याय से उत्तम पुरुषों को और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को प्राप्त होते हैं, वे अभीष्ट पदार्थों की सिद्धि को प्राप्त होते हैं ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि, अश्वि, राजा और उपदेशक के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छहत्तरवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः पुरुषार्थविद्वत्सङ्गेनैश्वर्य्यं प्राप्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽश्विनोर्नूतनेनावसा मयोभुवा सुप्रणीती नो रयिमाऽऽवहतं वीरानुत विश्वान्यमृता सौभगान्या वहतं वयं समाऽऽगमेम तथा यूयमप्युपगच्छत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) सम्यक् (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योरिव राजोपदेशकयोः (अवसा) अन्नादिना। अव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (नूतनेन) नवीनेन (मयोभुवा) सुखं भावुकेन (सुप्रणीती) शोभनयोत्तमया नीत्या (गमेम) प्राप्नुयाम (आ) (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (वहतम्) प्रापयतम् (आ) (उत) अपि (वीरान्) शौर्यादिगुणोपेतान् (आ) (विश्वानि) सर्वाणि (अमृता) स्वादून्युदकानि (सौभगानि) सुभगानामुत्तमधनाद्यैश्वर्याणां भावरूपाणि ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । य आप्तोपदेशेन राजन्यायव्यवस्थया सह वर्त्तित्वा न्यायेनोत्तमपुरुषानखिलान्यैश्वर्याणि च प्राप्नुवन्ति तेऽभीष्टसिद्धा भवन्तीति ॥५॥ अत्राग्न्यश्विराजोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्सप्ततितमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक विद्वानांच्या उपदेशामुळे व राजाच्या न्यायव्यवस्थेनुसार वागतात. न्यायाने उत्तम पुरुष व संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करतात त्यांना इच्छित पदार्थही मिळतात. ॥ ५ ॥