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न सं॑स्कृ॒तं प्र मि॑मीतो॒ गमि॒ष्ठान्ति॑ नू॒नम॒श्विनोप॑स्तुते॒ह। दिवा॑भिपि॒त्वेऽव॒साग॑मिष्ठा॒ प्रत्यव॑र्तिं दा॒शुषे॒ शंभ॑विष्ठा ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na saṁskṛtam pra mimīto gamiṣṭhānti nūnam aśvinopastuteha | divābhipitve vasāgamiṣṭhā praty avartiṁ dāśuṣe śambhaviṣṭhā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। सं॒स्कृ॒तम्। प्र। मि॒मी॒तः॒। गमि॑ष्ठा। अन्ति॑। नू॒नम्। अ॒श्विना॑। उप॑ऽस्तुता। इ॒ह। दिवा॑। अ॒भि॒ऽपि॒त्वे। अव॑सा। आऽग॑मिष्ठा। प्रति॑। अव॑र्त्तिम्। दा॒शुषे॑। शम्ऽभ॑विष्ठा ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:76» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गमिष्ठा) अतिशय चलनेवाले (शम्भविष्ठा) अतिशय सुखकारक और (नूनम्) निश्चित (उपस्तुता) प्राप्त हुई प्रशंसा से कीर्त्ति को पाये हुए (अश्विना) स्त्रीपुरुषो ! आप (इह) इस संसार में (संस्कृतम्) किया संस्कार जिसका उसको (न) नहीं (प्र, मिमीतः) उत्पन्न करते हो और (अभिपित्वे) सब ओर से प्राप्त होने पर (अवसा) रक्षण आदि से (अवर्त्तिम्) अमार्ग के (प्रति) प्रतिकूल उत्पन्न करते हो और (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (दिवा) दिवस से (अन्ति) समीप में (आगमिष्ठा) चारों और अतिशय चलनेवाले होओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो गृहस्थ जन-किया है संस्कार जिनका, ऐसे पदार्थों का वृथा नहीं नाश करते हैं, वे लक्ष्मीवान् होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे गमिष्ठा शम्भविष्ठा नूनमुपस्तुताऽश्विनेह संस्कृतं न प्र मिमीतः। अभिपित्वेऽवसाऽवर्तिं प्रति मिमीतो दाशुषे दिवान्त्यागमिष्ठा भवेताम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (संस्कृतम्) कृतसंस्कारम् (प्र) (मिमीतः) जनयतः (गमिष्ठा) अतिशयेन गन्तारौ (अन्ति) समीपे (नूनम्) निश्चितम् (अश्विना) स्त्रीपुरुषौ (उपस्तुता) उपगतप्रशंसया कीर्त्तितौ (इह) अस्मिन् (दिवा) दिवसेन (अभिपित्वे) अभितः प्राप्ते (अवसा) रक्षणाद्येन (आगमिष्ठा) समन्तादतिशयेन गन्तारौ (प्रति) (अवर्त्तिम्) अमार्गम् (दाशुषे) दात्रे (शम्भविष्ठा) अतिशयेन सुखस्य भावयितारौ ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये गृहस्थाः कृतसंस्कारान् पदार्थान् वृथा न हिंसन्ति ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे संस्कारित केलेल्या पदार्थांचा व्यर्थ नाश करीत नाहीत ती श्रीमंत होतात. ॥ २ ॥