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सु॒ष्टुभो॑ वां वृषण्वसू॒ रथे॒ वाणी॒च्याहि॑ता। उ॒त वां॑ ककु॒हो मृ॒गः पृक्षः॑ कृणोति वापु॒षो माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suṣṭubho vāṁ vṛṣaṇvasū rathe vāṇīcy āhitā | uta vāṁ kakuho mṛgaḥ pṛkṣaḥ kṛṇoti vāpuṣo mādhvī mama śrutaṁ havam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽस्तुभः॑। वा॒म्। वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू। रथे॑। वाणी॑ची। आऽहि॑ता। उ॒त। वा॒म्। क॒कु॒हः। मृ॒गः। पृक्षः॑। कृ॒णो॒ति॒। वा॒पु॒षः। माध्वी॒ इति॑। मम॑। श्रु॒त॒म्। हव॑म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:75» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषण्वसू) बलिष्ठों को बसानेवाले (माध्वी) मधुर स्वभाववाले विद्यायुक्त जनो ! जो (सुष्टुभः) उत्तम स्तुति करनेवाला (वाम्) आप दोनों के (रथे) रथ में रमता है जिससे (वाणीची) वाणी (आहिता) स्थापित की गई (उत) और जो (वाम्) दोनों का (ककुहः) बड़ा (मृगः) शुद्ध करनेवाला और (वापुषः) शरीर में हुआ (पृक्षः) अन्न को (कृणोति) करता है उसके और (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (श्रुतम्) सुनिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - वही बड़ा होता है, जो विद्वानों के समीप से विद्या और सुशीलता को ग्रहण करता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे वृषण्वसू माध्वी अश्विनौ ! यः सुष्टुभो वां रथं रमते येन वाणीच्याहितोत यो वां ककुहो मृगो वापुषः पृक्षः कृणोति तस्य मम च हवं श्रुतम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुष्टुभः) शोभनस्तोता (वाम्) (वृषण्वसू) यौ वृषणौ बलिष्ठान् वासयतस्तौ (रथे) (वाणीची) वाक् (आहिता) स्थापिता (उत) (वाम्) (ककुहः) महान् (मृगः) यो मार्ष्टि सः (पृक्षः) अन्नम्। पृक्ष इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (कृणोति) (वापुषः) वपुषि भवः (माध्वी) (मम) (श्रुतम्) (हवम्) ॥४॥
भावार्थभाषाः - स एव महान् भवति यो विदुषां सकाशाद्विद्यां सुशीलतां गृह्णाति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो विद्वानांकडून विद्या व सुशीलता शिकतो तोच मोठा असतो. ॥ ४ ॥