वांछित मन्त्र चुनें

पौ॒रं चि॒द्ध्यु॑द॒प्रुतं॒ पौर॑ पौ॒राय॒ जिन्व॑थः। यदीं॑ गृभी॒तता॑तये सिं॒हमि॑व द्रु॒हस्प॒दे ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pauraṁ cid dhy udaprutam paura paurāya jinvathaḥ | yad īṁ gṛbhītatātaye siṁham iva druhas pade ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पौ॒रम्। चि॒त्। हि। उ॒द॒ऽप्रुत॑म्। पौर॑। पौ॒राय॑। जिन्व॑थः। यत्। ई॒म्। गृ॒भी॒तऽता॑तये। सिंहम्ऽइ॑व। द्रु॒हः। प॒दे ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:74» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पौर) पुर में हुए ! आप (हि) ही (उदप्रुतम्) जल से युक्त (पौरम्) मनुष्य के सन्तान को (चित्) निश्चय से प्राप्त हूजिये और (पौराय) पुर में हुए मनुष्य के लिये अध्यापक और आप (जिन्वथः) प्राप्त होते हो (गृभीततातये) ग्रहण किया श्रेष्ठ कर्म्मों का विस्तार जिसने उसके लिये (द्रुहः) शत्रु के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (सिंहमिव) सिंह के सदृश (यत्) जिसको (ईम्) सब ओर से प्राप्त होते हो, उसको आप सन्तुष्ट कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे एक नगर के वासी जन परस्पर सुख की उन्नति करते हैं, वैसे ही अन्य देशवासी भी करें ॥४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे पौर ! त्वं ह्युदप्रुतं पौरं चित् प्राप्नुहि पौरायाऽध्यापकस्त्वं च जिन्वथो गृभीततातये द्रुहस्पदे सिंहमिव यदीं जिन्वथस्तं त्वं सन्तोषय ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पौरम्) पुरि भवं मनुष्यम् (चित्) अपि (हि) यतः (उदप्रुतम्) उदकयुक्तम् (पौर) पुरोर्मनुष्यस्याऽपत्यं तत्सम्बुद्धौ (पौराय) पुरे भवाय (जिन्वथः) प्राप्नुथः (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (गृभीततातये) गृहीता तातिः सत्कर्म्मविस्तृतिर्येन (सिंहमिव) सिंहवत् (द्रुहः) शत्रोः (पदे) प्राप्तव्ये ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथैकपुरवासिनः परस्परं सुखोन्नतिं कुर्वन्ति तथैव भिन्नदेशवासिनोऽप्याचरन्तु ॥४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसे एखाद्या शहरात राहणारे लोक परस्पर सुख वाढवितात. तसेच देशातील इतर लोकांनीही वागावे. ॥ ४ ॥