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कूष्ठो॑ देवावश्विना॒द्या दि॒वो म॑नावसू। तच्छ्र॑वथो वृषण्वसू॒ अत्रि॑र्वा॒मा वि॑वासति ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kūṣṭho devāv aśvinādyā divo manāvasū | tac chravatho vṛṣaṇvasū atrir vām ā vivāsati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कूऽस्थः॑। दे॒वौ॒। अ॒श्वि॒ना॒। अ॒द्य। दि॒वः। म॒ना॒व॒सू॒ इति॑। तत्। श्र॒व॒थः॒। वृ॒ष॒ण्ऽव॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू। अत्रिः॑। वा॒म्। आ। वि॒वा॒स॒ति॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:74» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दश ऋचावाले चौहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मनावसू) मन को वसानेवाले (वृषण्वसू) उत्तमों को वसानेवाले (अश्विना) विद्या से व्याप्त (देवौ) विद्वानो ! जो (कूष्ठः) पृथिवी में स्थित होनेवाला (अत्रिः) विद्या प्राप्त जन (अद्य) इस समय (दिवः) प्रकाश के सम्बन्ध में (वाम्) आप दोनों का (आ, विवासति) सब प्रकार से सेवन करता है (तत्) उसको आप दोनों (श्रवथः) सुनते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जो आप लोगों का सेवन करते हैं वे बहुश्रुत, विचारशील विद्वान् जन सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्म्मों का सेवन करते हैं और वे दुःख से रहित होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किमनुष्ठेयमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनावसू वृषण्वसू अश्विना देवौ ! यः कूष्ठोऽत्रिरद्य दिवो वामाविवासति तद्युवां श्रवथः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कूष्ठः) यः कौ पृथिव्यां तिष्ठति (देवौ) विद्वांसौ (अश्विना) व्याप्तविद्यौ (अद्य) (दिवः) प्रकाशस्य (मनावसू) यौ मनो वासयतस्तौ (तत्) (श्रवथः) शृणुथः (वृषण्वसू) यौ वृषणो वासयतस्तौ (अत्रिः) आप्तविद्यः (वाम्) (आ, विवासति) समन्तात्सेवते ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! ये युष्मान् सेवन्ते ते बहुश्रुता मननशीला विद्वांसः सर्वाणि सत्कर्म्माणि सेवन्ते ते दुःखरहिता जायन्ते ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अध्यापक, उपदेशक व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो! जे तुम्हाला मानतात ते बहुश्रुत विचारशील विद्वान लोक संपूर्ण श्रेष्ठ कर्मांचा स्वीकार करून दुःखरहित होतात. ॥ १ ॥