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उ॒ग्रो वां॑ ककु॒हो य॒यिः शृ॒ण्वे यामे॑षु संत॒निः। यद्वां॒ दंसो॑भिरश्वि॒नात्रि॑र्नराव॒वर्त॑ति ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ugro vāṁ kakuho yayiḥ śṛṇve yāmeṣu saṁtaniḥ | yad vāṁ daṁsobhir aśvinātrir narāvavartati ||

पद पाठ

उ॒ग्रः। वा॒म्। क॒कु॒हः। य॒यिः। शृ॒ण्वे। यामे॑षु। स॒म्ऽत॒निः। यत्। वा॒म्। दंसः॑ऽभिः। अ॒श्वि॒ना॒। अत्रिः॑। न॒रा॒। आ॒ऽव॒वर्त॑ति ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:73» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) नायक (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यत्) जो (ययिः) चलनेवाला (ककुहः) बड़ा (उग्रः) तेजस्वी (सन्तनिः) उत्तम प्रकार विस्तारकर्त्ता मैं (यामेषु) प्रहरों में (वाम्) आप दोनों को (शृण्वे) सुनूँ और जो (वाम्) आप दोनों के (दंसोभिः) कर्म्मों से (अत्रिः) न तीन वार (आववर्त्तति) अत्यन्त वर्त्तमान हैं, उन हम दोनों को आप दोनों बोध कराइये ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश नियम से वर्त्ताव करके कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे सर्वदा उन्नत होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे नराश्विना ! यद्यो ययिः ककुह उग्रः सन्तनिरहं यामेषु वां शृण्वे यश्च वां दंसोभिरत्रिराववर्त्तति ता आवां युवां बोधयतम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उग्रः) तेजस्वी (वाम्) युवाम् (ककुहः) महान् (ययिः) यो याति सः (शृण्वे) (यामेषु) प्रहरेषु (सन्तनिः) सम्यक् विस्तारकः (यत्) यः (वाम्) युवयोः (दंसोभिः) कर्म्मभिः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (अत्रिः) अत्रिवारम् (नरा) नेतारौ (आववर्तति) भृशं वर्त्तते ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या सूर्य्यचन्द्रवन्नियमेन वर्त्तित्वा कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते सर्वदोन्नता जायन्ते ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सूर्य व चंद्राप्रमाणे नियमाने वागून कार्य पूर्ण करतात. ती सदैव उन्नत होतात. ॥ ७ ॥