वांछित मन्त्र चुनें

मि॒त्रश्च॑ नो॒ वरु॑णश्च जु॒षेतां॑ य॒ज्ञमि॒ष्टये॑। नि ब॒र्हिषि॑ सदतं॒ सोम॑पीतये ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitraś ca no varuṇaś ca juṣetāṁ yajñam iṣṭaye | ni barhiṣi sadatāṁ somapītaye ||

पद पाठ

मित्रः। च॒। नः॒। वरु॑णः। च॒। जु॒षेता॑म्। य॒ज्ञम्। इ॒ष्टये॑। नि। ब॒र्हिषि॑। स॒द॒त॒म्। सोम॑ऽपीतये ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:72» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को यहाँ कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री पुरुषो ! जैसे (मित्रः) मित्र (च) और (वरुणः) स्वीकार करते योग्य जन (च) भी (इष्टये) इष्ट सुख के लिये और (सोमपीतये) सोमरस के पान के लिये (नः) हम लोगों के (यज्ञम्) यज्ञ का (जुषेताम्) सेवन करिये और (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं, वैसे आप दोनों (नि, सदतम्) स्थिर हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मित्र के सदृश वर्त्ताव करके वाञ्छित सुख से सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, वे गणना करने योग्य होते हैं ॥३॥ इस सूक्त में मित्र और श्रेष्ठ विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद में बहत्तरवाँ सूक्त पञ्चम अनुवाक चतुर्थ अष्टक में दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरिह कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे स्त्रीपुरुषौ ! यथा मित्रश्च वरुणश्चेष्टये सोमपीतये नो यज्ञं जुषेतां बर्हिष्याशाते तथा युवां निषदतम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सखा (च) (नः) अस्माकम् (वरुणः) वरणीयः (च) (जुषेताम्) (यज्ञम्) (इष्टये) इष्टसुखाय (नि) (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे (सदतम्) निषीदतम् (सोमपीतये) सोमस्य पानाय ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये सखीवद्वर्त्तित्वेष्टसुखं सिषाधिषन्ति ते गणनीया जायन्ते ॥३॥ अत्र मित्रवरुणविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विसप्ततितमं सूक्तं पञ्चमोऽनुवाकश्चतुर्थाष्टको दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे मित्राप्रमाणे वर्तन करून इच्छित सुख पूर्ण करण्याची आकांक्षा बाळगतात ते गणना करण्यायोग्य असतात. ॥ ३ ॥