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आ मि॒त्रे वरु॑णे व॒यं गी॒र्भिर्जु॑हुमो अत्रि॒वत्। नि ब॒र्हिषि॑ सदतं॒ सोम॑पीतये ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā mitre varuṇe vayaṁ gīrbhir juhumo atrivat | ni barhiṣi sadataṁ somapītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। मि॒त्रे। वरु॑णे। व॒यम्। गीः॒ऽभिः। जु॒हु॒मः॒। अ॒त्रि॒ऽवत्। नि। ब॒र्हिषि॑। स॒द॒त॒म्। सोम॑ऽपीतये ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:72» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले बहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों के प्रति कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जैसे (वयम्) हम लोग (गीर्भिः) वाणियों से (अत्रिवत्) नहीं विद्यमान तीन प्रकार का दुःख जिसको उसके तुल्य (मित्रे) मित्र और (वरुणे) उत्तम पुरुष के निमित्त (आ, जुहुमः) अच्छे प्रकार होम करते हैं और आप (सोमपीतये) सोम रस के पान करने के लिये (बर्हिषि) उत्तम गृह वा आसन में (नि, सदतम्) बैठिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मित्र के सदृश वर्त्ताव करके संपूर्ण जगत् का सत्कार करते हैं, उनके अनुसार सबको वर्त्तना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यान् प्रति कथं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! वयं गीर्भिरत्रिवन्मित्रे वरुण आ जुहुमः युवां सोमपीतये बर्हिषि उत्तमे नि सदतम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (मित्रे) (वरुणे) उत्तमे पुरुषे (वयम्) (गीर्भिः) वाग्भिः (जुहुमः) (अत्रिवत्) अविद्यमानत्रिविधदुःखेन तुल्यम् (नि) (बर्हिषि) उत्तमे गृहे आसने वा (सदतम्) सीदतम् (सोमपीतये) सोमस्य पानाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मित्रवद्वर्त्तित्वा सर्वं जगत्सत्कुर्वन्ति तदनुसरणैः सर्वैर्वर्त्तितव्यम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मित्र व श्रेष्ठ विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे मित्राप्रमाणे वागून संपूर्ण जगाचा सत्कार करतात. त्यांच्यानुसार सर्वांनी वागले पाहिजे. ॥ १ ॥