आ नो॑ गन्तं रिशादसा॒ वरु॑ण॒ मित्र॑ ब॒र्हणा॑। उपे॒मं चारु॑मध्व॒रम् ॥१॥
ā no gantaṁ riśādasā varuṇa mitra barhaṇā | upemaṁ cārum adhvaram ||
आ। नः॒। ग॒न्त॒म्। रि॒शा॒द॒सा॒। वरु॑ण। मित्र॑। ब॒र्हणा॑। उप॑। इ॒मम्। चारु॑म्। अ॒ध्व॒रम् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीन ऋचावाले एकहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर अध्यापक और उपदेशक क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनरध्यापकोपदेशकौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥
हे रिशादसा वरुण मित्र ! बर्हणा युवामिमं नश्चारुमध्वरमुपागन्तम् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात मित्र, श्रेष्ठ व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.