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प्रा॒तर्दे॒वीमदि॑तिं जोहवीमि म॒ध्यंदि॑न॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य। रा॒ये मि॑त्रावरुणा स॒र्वता॒तेळे॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शं योः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prātar devīm aditiṁ johavīmi madhyaṁdina uditā sūryasya | rāye mitrāvaruṇā sarvatāteḻe tokāya tanayāya śaṁ yoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒तः। दे॒वीम्। अदि॑तिम्। जो॒ह॒वी॒मि॒। म॒ध्यंदि॑ने। उत्ऽइ॑ता। सूर्य॑स्य। रा॒ये। मि॒त्रा॒ऽव॒रु॒णा॒। स॒र्वऽता॑ता। ईळे॑। तो॒काय॑। तन॑याय। शम्। योः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:69» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) प्राण और वायु के सदृश माता और पिता ! जैसे मैं (सर्वताता) सब के सुख देनेवाले यज्ञ में (राये) धन आदि के लिये (तोकाय) छोटे (तनयाय) कुमार के अर्थ (प्रातः) प्रातःकाल (देवीम्) श्रेष्ठ बुद्धि को (अदितिम्) अखण्डित बोध से युक्त को और (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (मध्यन्दिने) मध्याह्न (उदिता) उदित में (योः) संयुक्त (शम्) सुख को (जोहवीमि) अत्यन्त ग्रहण करता हूँ और मैं (ईळे) प्रशंसा करता हूँ, वैसे आप दोनों आचरण कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य कुटम्ब के पालन के लिये श्रेष्ठ पुरुषों की शिक्षा और वृद्धि के लिये सर्वदा प्रयत्न करते हैं, वे विद्वानों के कुल को करते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः सततं प्रयततितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणा ! यथाहं सर्वताता राये तोकाय तनयाय प्रातर्देवीमदितिं सूर्य्यस्य मध्यन्दिन उदिता योः शं जोहवीमि योऽहमीळे योऽहमीळे तथा युवामाचरतम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रातः) (देवीम्) दिव्यां प्रज्ञाम् (अदितिम्) अखण्डितबोधाम् (जोहवीमि) भृशं गृह्णामि (मध्यन्दिने) मध्याह्ने (उदिता) उदिते (सूर्य्यस्य) (राये) धनाद्याय (मित्रावरुणा) प्राणोदानवन्मातापितरौ (सर्वताता) सर्वेषां सुखप्रदे यज्ञे (ईळे) प्रशंसे (तोकाय) अल्पाय (तनयाय) कुमाराय (शम्) सुखम् (योः) संयुक्तम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्या कुटुम्बपालनाय सतां शिक्षायै वृद्धये सर्वदा प्रयतन्ते ते विद्वत्कुलं कुर्वन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे कुटुंबाचे पालन करण्यासाठी, श्रेष्ठ पुरुषांचे शिक्षण व वृद्धी यासाठी सदैव प्रयत्नशील असतात ते विद्वानांचे कुल निर्माण करत असतात. ॥ ३ ॥