त्री रो॑च॒ना व॑रुण॒ त्रीँरु॒त द्यून्त्रीणि॑ मित्र धारयथो॒ रजां॑सि। वा॒वृ॒धा॒नाव॒मतिं॑ क्ष॒त्रिय॒स्यानु॑ व्र॒तं रक्ष॑माणावजु॒र्यम् ॥१॥
trī rocanā varuṇa trīm̐r uta dyūn trīṇi mitra dhārayatho rajāṁsi | vāvṛdhānāv amatiṁ kṣatriyasyānu vrataṁ rakṣamāṇāv ajuryam ||
त्री। रो॒च॒ना। व॒रु॒ण॒। त्रीन्। उ॒त। द्यून्। त्रीणि॑। मि॒त्र॒। धा॒र॒य॒थः॒। रजां॑सि। व॒वृ॒धा॒नौ। अ॒मति॑म्। क्ष॒त्रिय॑स्य। अनु॑। व्र॒तम्। रक्ष॑माणौ। अ॒जु॒र्यम् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले उनहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार में मनुष्यों को क्या जान कर क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अत्र मनुष्यैः किं विज्ञाय किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे मित्र वरुण ! यथा प्राणोदानौ त्री रोचना त्रीन् द्यूनुत त्रीणि प्रकाशनीयानि रजांसि वावृधानौ सन्तौ क्षत्रियस्यामतिमजुर्य्यमनु व्रतं रक्षमाणौ सन्तौ धारयतस्तथैतो युवां धारयथः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात प्राण, उदान विद्युतच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.