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प्र वो॑ मि॒त्राय॑ गायत॒ वरु॑णाय वि॒पा गि॒रा। महि॑क्षत्रावृ॒तं बृ॒हत् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo mitrāya gāyata varuṇāya vipā girā | mahikṣatrāv ṛtam bṛhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। मि॒त्राय॑। गा॒य॒त॒। वरु॑णाय। वि॒पा। गि॒रा। महि॑ऽक्षत्रौ। ऋ॒तम्। बृ॒॒हत् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:68» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को परस्पर क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (वः) तुम लोगों के जो (विपा) अनेक प्रकार से रक्षा करनेवाले (महिक्षत्रौ) बड़े क्षत्र जिनके वे (बृहत्) बड़े (ऋतम्) सत्य से युक्त को ग्रहण करें, उन दोनों से (मित्राय) मित्र के और (वरुणाय) उत्तम आचरण के लिये तुम (गिरा) वाणी से (प्र, गायत) प्रशंसा करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो अध्यापक और उपदेशक जन सब मनुष्यों को विद्यादि से पवित्र करते हैं, वे मनुष्यों से सर्वदा सत्कार करने योग्य हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैर्मिथः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! वो यौ विपा महिक्षत्रौ बृहदृतं गृह्णीयातां ताभ्यां मित्राय वरुणाय यूयं गिरा प्र गायत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्माकम् (मित्राय) सुहृदे (गायत) प्रशंसत (वरुणाय) उत्तमाचरणाय (विपा) यौ विविधप्रकारेण पातस्तौ (गिरा) वाण्या (महिक्षत्रौ) महत्क्षत्रं ययोस्तौ (ऋतम्) सत्याढ्यम् (बृहत्) महत् ॥१॥
भावार्थभाषाः - यावाध्यापकोपदेशकौ सर्वान् मनुष्यान् विद्यादिना शोधयतस्तौ मनुष्यैः सर्वदा सत्कर्त्तव्यौ ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मित्र, श्रेष्ठ व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे अध्यापक व उपदेशक सर्व माणसांना विद्या इत्यादींनी पवित्र करतात ते सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १ ॥