बळि॒त्था दे॑वा निष्कृ॒तमादि॑त्या यज॒तं बृ॒हत्। वरु॑ण॒ मित्रार्य॑म॒न्वर्षि॑ष्ठं क्ष॒त्रमा॑शाथे ॥१॥
baḻ itthā deva niṣkṛtam ādityā yajatam bṛhat | varuṇa mitrāryaman varṣiṣṭhaṁ kṣatram āśāthe ||
बट्। इ॒त्था। दे॒वा॒। निः॒ऽकृ॒तम्। आदि॑त्या। य॒ज॒तम्। बृ॒हत्। वरु॑ण। मित्र॑। अर्य॑मन्। वर्षि॑ष्ठम्। क्ष॒त्रम्। आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किसके तुल्य क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः किंवत् किं करणीयमित्याह ॥
हे देवा आदित्या मित्र वरुण ! युवां बृहन्निष्कृतं यजतं, हे अर्य्यमन्नित्था त्वं च यज। हे मित्रावरुण ! युवां यथा बड् वर्षिष्ठं क्षत्रमाशाथे तथेदमर्यमन्नपि प्राप्नोतु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात मित्र वरुण व विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.