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बळि॒त्था दे॑वा निष्कृ॒तमादि॑त्या यज॒तं बृ॒हत्। वरु॑ण॒ मित्रार्य॑म॒न्वर्षि॑ष्ठं क्ष॒त्रमा॑शाथे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

baḻ itthā deva niṣkṛtam ādityā yajatam bṛhat | varuṇa mitrāryaman varṣiṣṭhaṁ kṣatram āśāthe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बट्। इ॒त्था। दे॒वा॒। निः॒ऽकृ॒तम्। आदि॑त्या। य॒ज॒तम्। बृ॒हत्। वरु॑ण। मित्र॑। अर्य॑मन्। वर्षि॑ष्ठम्। क्ष॒त्रम्। आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:67» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किसके तुल्य क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवा) श्रेष्ठ स्वभाववाले (आदित्या) अविनाशी (मित्र) मित्र (वरुण) श्रेष्ठ ! आप दोनों (बृहत्) बड़े (निष्कृतम्) उत्पन्न हुए को (यजतम्) उत्तम प्रकार मिलो, हे (अर्य्यमन्) न्यायकारी ! (इत्था) इस प्रकार से आप भी मिलिये और हे मित्र श्रेष्ठ जनो ! तुम जैसे (बट्) सत्य (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बढ़े हुए (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (आशाथे) प्राप्त होते हो, वैसे इसको न्यायकारी भी प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे विद्वान् जन इस संसार में धर्म्म युक्त कर्म्मों को करें, वैसे राज्य का राजा आदि पालन करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किंवत् किं करणीयमित्याह ॥

अन्वय:

हे देवा आदित्या मित्र वरुण ! युवां बृहन्निष्कृतं यजतं, हे अर्य्यमन्नित्था त्वं च यज। हे मित्रावरुण ! युवां यथा बड् वर्षिष्ठं क्षत्रमाशाथे तथेदमर्यमन्नपि प्राप्नोतु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बट्) सत्यम् (इत्था) अनेन प्रकारेण (देवा) दिव्यस्वभावौ (निष्कृतम्) निष्पन्नम् (आदित्या) अविनाशिनौ (यजतम्) सङ्गच्छेताम् (बृहत्) महत् (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) सुहृत् (अर्यमन्) न्यायकारिन् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (आशाथे) प्राप्नुथः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा विद्वांसोऽत्र धर्म्याणि कुर्युस्तथा राज्यं राजादयः पालयन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मित्र वरुण व विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक या जगात धर्मयुक्त कर्म करतात तसे राजाने राज्याचे पालन करावे. ॥ १ ॥