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ता हि क्ष॒त्रमवि॑ह्रुतं स॒म्यग॑सु॒र्य१॒॑माशा॑ते। अध॑ व्र॒तेव॒ मानु॑षं॒ स्व१॒॑र्ण धा॑यि दर्श॒तम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā hi kṣatram avihrutaṁ samyag asuryam āśāte | adha vrateva mānuṣaṁ svar ṇa dhāyi darśatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। हि। क्ष॒त्रम्। अवि॑ऽह्रुतम्। स॒म्यक्। अ॒सु॒र्य॑म्। आशा॑ते॒ इति॑। अध॑। व्र॒ताऽइ॑व। मानु॑षम्। स्वः॑। न। धा॒यि॒। द॒र्श॒तम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:66» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (ता) वे (हि) ही (अविह्रुतम्) नहीं कुटिल (असुर्य्यम्) विद्वानों के लिये हितकारक (सम्यक्) उत्तम प्रकार चलनेवाले (क्षत्रम्) धन वा राज्य को (आशाते) व्याप्त होते हैं (अध) इसके अनन्तर जिन्होंने हित (मानुषम्) मनुष्यसम्बन्धी (दर्शतम्) देखने योग्य (व्रतेव) कर्म्मों के सदृश और (स्वः) सुख के (न) सदृश (धायि) धारण किया ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । सब मनुष्य धर्म पथ से सुख और कर्म्म को धारण करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! ता ह्यविह्रुतमसुर्य्यं सम्यक् क्षत्रमाशाते अथ याभ्यां हितम्मानुषं दर्शतं व्रतेव स्वर्ण धायि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (हि) एव (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (अविह्रुतम्) अकुटिलम् (सम्यक्) यत्समीचीनमञ्चति (असुर्य्यम्) असुरेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (आशाते) व्याप्नुतः (अध) अथ (व्रतेव) कर्म्माणीव (मानुषम्) मनुष्याणामिदम् (स्वः) सुखम् (न) इव (धायि) ध्रियताम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । सर्वे मनुष्या धर्मपथा सुखं कर्म्म च धरन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्ममार्गाने सुख मिळवावे व कर्म करावे. ॥ २ ॥