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आ चि॑कितान सु॒क्रतू॑ दे॒वौ म॑र्त रि॒शाद॑सा। वरु॑णाय ऋ॒तपे॑शसे दधी॒त प्रय॑से म॒हे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā cikitāna sukratū devau marta riśādasā | varuṇāya ṛtapeśase dadhīta prayase mahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। चि॒कि॒ता॒न॒। सु॒क्रतू॒ इति॑ सु॒ऽक्रतू॑। दे॒वौ। म॒र्त॒। रि॒शाद॑सा। वरु॑णाय। ऋ॒तऽपे॑शसे। द॒धी॒त। प्रय॑से। म॒हे ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:66» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले छासठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र मे मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (चिकितान, मर्त्त) ज्ञान और मरण धर्मयुक्त ! आप (ऋतपेशसे) सत्यस्वरूप और (प्रयसे) प्रयत्न करते हुए (महे) बड़े (वरुणाय) उत्तम व्यवहारयुक्त के लिये (रिशादसा) दुष्टों के मारनेवाले (सुक्रतू) उत्तम बुद्धिमान् (देवौ) दो विद्वानों को (आ) सब प्रकार से (दधीत) धारण करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - वही विद्वान् होता है, जो विद्वानों का सङ्ग करके बुद्धि को बढ़ाता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यः किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे चिकितान मर्त्त ! भवानृतपेशसे प्रयसे महे वरुणाय रिशादसा सुक्रतू देवावा दधीत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (चिकितान) ज्ञानयुक्त (सुक्रतू) शोभनप्रज्ञौ (देवौ) विद्वांसौ (मर्त्त) मरणधर्मयुक्त (रिशादसा) दुष्टहिंसकौ (वरुणाय) उत्तमाय व्यवहाराय (ऋतपेशसे) सत्यस्वरूपाय (दधीत) दधेत (प्रयसे) प्रयतमानाय (महे) महते ॥१॥
भावार्थभाषाः - स एव विद्वान् भवति यो विदुषां सङ्गं कृत्वा प्रज्ञां वर्धयति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात मित्र व श्रेष्ठ विद्वान तसेच विदुषी स्त्रीच्या गुणवर्णनामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो विद्वानांबरोबर संगती करून बुद्धी वाढवितो तोच विद्वान असतो. ॥ १ ॥