यश्चि॒केत॒ स सु॒क्रतु॑र्देव॒त्रा स ब्र॑वीतु नः। वरु॑णो॒ यस्य॑ दर्श॒तो मि॒त्रो वा॒ वन॑ते॒ गिरः॑ ॥१॥
yaś ciketa sa sukratur devatrā sa bravītu naḥ | varuṇo yasya darśato mitro vā vanate giraḥ ||
यः। चि॒केत॑। सः। सु॒ऽक्रतुः॑। दे॒व॒ऽत्रा। सः। ब्र॒वी॒तु॒। नः॒। वरु॑णः। यस्य॑। द॒र्श॒तः। मि॒त्रः। वा॒। वन॑ते। गिरः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले पैंसठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मित्रावरुण पदवाच्य पढ़ने पढ़ानेवाले वा उपदेश योग्य वा उपदेश देनेवालों के विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अत्र मित्रावरुणपदवाच्याध्यापकाध्येत्रुपदेश्योपदेशकविषयमाह ॥
यत्सुक्रतुर्वरुणोऽस्ति स चिकेत यो देवत्रा देवोऽस्ति स नो ब्रवीतु वा यस्य दर्शतो मित्रोऽस्ति स नो गिरो वनते ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात मित्रावरूण पदवाच्य अध्यापक व अध्ययन करण्याने व उपदेश करण्याने व उपदेश देण्यायोग्य कर्मांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.