वांछित मन्त्र चुनें

उ॒च्छन्त्यां॑ मे यज॒ता दे॒वक्ष॑त्रे॒ रुश॑द्गवि। सु॒तं सोमं॒ न ह॒स्तिभि॒रा प॒ड्भिर्धा॑वतं नरा॒ बिभ्र॑तावर्च॒नान॑सम् ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ucchantyām me yajatā devakṣatre ruśadgavi | sutaṁ somaṁ na hastibhir ā paḍbhir dhāvataṁ narā bibhratāv arcanānasam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒च्छन्त्या॑म्। मे॒। य॒ज॒ता। दे॒वऽक्ष॑त्रे। रुश॑त्ऽगवि। सु॒तम्। सोम॑म्। न। ह॒स्तिऽभिः॑। आ। प॒ट्ऽभिः। धा॒व॒त॒म्। न॒रा॒। बिभ्र॑तौ। अ॒र्च॒नान॑सम् ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:64» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:7 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान (यजता) मिलनेवाले (नरा) नायक राजा और मन्त्रीजन ! आप दोनों (उच्छन्त्याम्) विवास करती हुई में तथा (रुशद्गवि) प्रकाशमान किरणों से युक्त (देवक्षत्रे) विद्वानों के धन वा राज्य में (सुतम्) उत्पन्न किये गये (सोमम्) ऐश्वर्य को (हस्तिभिः) हाथियों से (न) जैसे वैसे (पड्भिः) पैरों से (धावतम्) प्राप्त होओ और (अर्चनानसम्) श्रेष्ठ नासिका जिसकी उसको (बिभ्रतौ) धारण करते हुए (मे) मेरे उत्पन्न किये गये ऐश्वर्य को (आ) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे पुरुषार्थी राजजनो ! प्रजाओं का न्याय से पालन करके विद्वानों के धन को प्राप्त होओ ॥७॥ इस सूक्त में प्राण और उदान के सदृश वर्तमान तथा विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौसठवाँ सूक्त और द्वितीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणौ यजता नरा राजाऽमात्यौ ! युवामुच्छन्त्यां रुशद्गवि देवक्षत्रे सुतं सोमं हस्तिभिर्न पड्भिर्धावतमर्चनानसं बिभ्रतौ मे सुतं सोममा प्राप्नुतम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उच्छन्त्याम्) विवसन्त्याम् (मे) मम (यजता) सङ्गन्तारौ (देवक्षत्रे) देवानां धने राज्ये वा (रुशद्गवि) प्रकाशमानरश्मियुक्ते (सुतम्) निष्पादितम् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (न) इव (हस्तिभिः) इभैः (आ) (पड्भिः) पादैः (धावतम्) गच्छन्तम् (नरा) नैतारौ (बिभ्रतौ) धरन्तौ (अर्चनानसम्) अर्चिता श्रेष्ठा नासिका यस्य तम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे पुरुषार्थिनो राजजनाः ! प्रजा न्यायेन पालयित्वा विद्वद्धनं प्राप्नुतेति ॥७॥ अत्र मित्रावरुणविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुःषष्टितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे पुरुषार्थी राजजनांनो प्रजेचे न्यायाने पालन करून विद्वानांचे धन प्राप्त करा. ॥ ७ ॥