वांछित मन्त्र चुनें

स॒म्राजा॑व॒स्य भुव॑नस्य राजथो॒ मित्रा॑वरुणा वि॒दथे॑ स्व॒र्दृशा॑। वृ॒ष्टिं वां॒ राधो॑ अमृत॒त्वमी॑महे॒ द्यावा॑पृथि॒वी वि च॑रन्ति त॒न्यवः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samrājāv asya bhuvanasya rājatho mitrāvaruṇā vidathe svardṛśā | vṛṣṭiṁ vāṁ rādho amṛtatvam īmahe dyāvāpṛthivī vi caranti tanyavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्ऽराजौ॑। अ॒स्य। भुव॑नस्य। रा॒ज॒थः॒। मित्रा॑वरुणा। वि॒दथे॑। स्वः॒ऽदृशा॑। वृ॒ष्टिम्। वा॒म्। राधः॑। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। ई॒म॒हे॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। वि। च॒र॒न्ति॒। त॒न्यवः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:63» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मित्रावरुणवाच्य राजा अमात्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) वायु और सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान (स्वर्दृशा) सुख को दिखाने और (सम्राजौ) उत्तम प्रकार शोभित होनेवाले राजा और मन्त्रीजनो ! आप जैसे (तन्यवः) बिजुलियाँ (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि को (वि, चरन्ति) विचरती और (वृष्टिम्) वृष्टि को उत्पन्न करती हैं, वैसे (अस्य) इस (भुवनस्य) संसार के मध्य (विदथे) सङ्ग्राम में (राजथः) प्रकाशित होते हैं, हम लोग (वाम्) आप दोनों से (रायः) धन और (अमृतत्वम्) जल होने की (ईमहे) याचना करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु और बिजुली वर्षा करके सब मनुष्यों को धन और धान्य से युक्त करते हैं, वैसे धार्मिक राजा और मन्त्री प्रजाओं को ऐश्वर्य्ययुक्त करें ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मित्रावरुणवाच्यराजामात्यविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणा स्वर्दृशा सम्राजौ राजामात्यौ ! युवां यथा तन्यवो द्यावापृथिवी वि चरन्ति वृष्टिं जनयन्ति तथाऽस्य भुवनस्य मध्ये विदथे राजथो वयं वा राधोऽमृतत्वं चेमहे ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्राजौ) यौ सम्यग्राजेते तौ (अस्य) (भुवनस्य) जगतो मध्ये (राजथः) प्रकाशेथे (मित्रावरुणा) वायुसूर्याविव (विदथे) सङ्ग्रामे (स्वर्दृशा) यौ स्वः सुखं दर्शयतस्तौ (वृष्टिम्) (वाम्) युवाभ्याम् (राधः) धनम् (अमृतत्वम्) उदकस्य भावम् (ईमहे) याचामहे (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (वि) विविधे (चरन्ति) गच्छन्ति (तन्यवः) विद्युतः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा वायुविद्युतौ वृष्टिं कृत्वा सर्वान् मनुष्यान् धनधान्याढ्यान् कुरुतस्तथा धार्मिकौ राजामात्यौ प्रजा ऐश्वर्य्ययुक्ताः कुर्याताम् ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू व विद्युत वृष्टी करून सर्व माणसांना धनधान्यांनी समृद्ध करतात. तसे धार्मिक राजा व अमात्य यांनी प्रजेला ऐश्वर्ययुक्त करावे. ॥ २ ॥