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अधा॑रयतं पृथि॒वीमु॒त द्यां मित्र॑राजाना वरुणा॒ महो॑भिः। व॒र्धय॑त॒मोष॑धीः॒ पिन्व॑तं॒ गा अव॑ वृ॒ष्टिं सृ॑जतं जीरदानू ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhārayatam pṛthivīm uta dyām mitrarājānā varuṇā mahobhiḥ | vardhayatam oṣadhīḥ pinvataṁ gā ava vṛṣṭiṁ sṛjataṁ jīradānū ||

पद पाठ

अधा॑रयतम्। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। मित्र॑ऽराजाना। व॒रु॒णा॒। महः॑ऽभिः। व॒र्धय॑तम्। ओष॑धीः। पिन्व॑तम्। गाः। अव॑। वृ॒ष्टिम्। सृ॒ज॒तम्। जी॒र॒दा॒नू॒ इति॑ जीरऽदानू ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:62» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जीरदानू) जीवन के देनेवाले (वरुणा) श्रेष्ठ ! (मित्रराजाना) जैसे वायु और बिजुली (पृथिवीम्) भूमि को (उत) और (द्याम्) सूर्य्य को धारण करते हैं, वैसे (अधारयतम्) धारण कीजिये और जैसे ये दोनों (महोभिः) बड़े गुणों से (ओषधीः) यव आदि ओषधियों को बढ़ाते हैं, वैसे आप दोनों (वर्धयतम्) बढ़ावें, (गाः) पृथिवियों को तृप्त करते हैं, वैसे आप दोनों (पिन्वतम्) तृप्त कीजिये और जैसे ये दोनों (वृष्टिम्) वृष्टि को उत्पन्न करते हैं, वैसे (अव, सृजतम्) उत्पन्न कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजा और मन्त्रीजनो ! आप दोनों प्राण और सूर्य्य के सदृश वर्त्ताव कर पृथिवी के राज्य का पालन कर वैद्य और ओषधियों की वृद्धि कर और वृष्टि की उन्नति करके सबके सुख के लिये वर्त्ताव कीजिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे जीरदानू वरुणा ! मित्रराजाना यथा वायुविद्युतौ पृथिवीमुत द्यां धारयतस्तथाऽधारयतं यथेमौ महोभिरोषधीर्वर्धयतस्तथा युवां वर्धयतं गाः पिन्वतस्तथा युवां पिन्वतं तथैतौ वृष्टिमव सृजतस्तथाऽव सृजतम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधारयतम्) धारयतम् (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) (द्याम्) सूर्य्यम् (मित्रराजाना) प्राणविद्युतौ (वरुणा) श्रेष्ठौ (महोभिः) बृहद्भिर्गुणैः (वर्धयतम्) (ओषधीः) यवाद्याः (पिन्वतम्) तर्प्पयतम् (गाः) पृथिवीः (अव) (वृष्टिम्) (सृजतम्) (जीरदानू) यौ जीवनं दद्यातां तौ ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजामात्यौ ! युवां प्राणसूर्य्यवद्वर्त्तित्वा पृथिवीराज्यं सम्पाल्य वैद्योषधीर्वर्धयित्वा वृष्टिमुन्नीय सर्वेषां सुखाय वर्त्तेयाताम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा व मंत्र्यांनो! तुम्ही दोघे प्राण व सूर्य यांच्याप्रमाणे वागून पृथ्वीच्या राज्याचे पालन करा. वैद्य व औषधींची वृद्धी करा व वृष्टीची वाढ करा तसेच सर्वांच्या सुखासाठी झटा. ॥ ३ ॥