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सन॒त्साश्व्यं॑ प॒शुमु॒त गव्यं॑ श॒ताव॑यम्। श्या॒वाश्व॑स्तुताय॒ या दोर्वी॒रायो॑प॒बर्बृ॑हत् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanat sāśvyam paśum uta gavyaṁ śatāvayam | śyāvāśvastutāya yā dor vīrāyopabarbṛhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सन॑त्। सा। अश्व्य॑म्। प॒शुम्। उ॒त। गव्य॑म्। श॒तऽअ॑वयम्। श्या॒वाश्व॑ऽस्तुताय। या। दोः। वी॒राय॑। उ॒प॒ऽबर्बृ॑हत् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:61» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) जो (श्यावाश्वस्तुताय) घोड़ों से प्रशंसित (वीराय) वीर जन के लिये (दोः) भुजा का बल (उपबर्बृहत्) अत्यन्त समीप में देती है (सा) वह विद्यायुक्त स्त्री (सनत्) सनातन (अश्व्यम्) घोड़ों में श्रेष्ठ (गव्यम्) गौओं में श्रेष्ठ (उत) और (शतावयम्) सौ अवयव जिसमें उस (पशुम्) देखते हुए को बढ़ा सकती है ॥५॥
भावार्थभाषाः - वही स्त्री प्रशंसित होती है, जो अपने पति को काम में आसक्त करके बल का नाश नहीं करती है और गृहस्थित घोड़े आदि का पालन करके बढ़ाती है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

या श्यावाश्वस्तुताय वीराय दोरुपबर्बृहत् सा सनदश्व्यं गव्यमुत शतावयं पशुं वर्धयितुं शक्नोति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सनत्) सनातनम् (सा) विदुषी स्त्री (अश्व्यम्) अश्वेषु साधुम् (पशुम्) पश्यन्तम् (उत) अपि (गव्यम्) गोषु साधुम् (शतावयम्) शतान्यवयवा यस्मिँस्तम् (श्यावाश्वस्तुताय) श्यावैरश्वैः प्रशंसिताय (या) (दोः) भुजस्य बलम् (वीराय) शूराय (उपबर्बृहत्) भृशमुपबर्हयति ॥५॥
भावार्थभाषाः - सैव स्त्री प्रशंसिता भवति या स्वपतिं कामासक्तं कृत्वा बलं न नाशयति गृहस्थानश्वादीन् सम्पाल्य वर्धयति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी आपल्या पतीला कामवसनेने आसक्त करून बलाचा नाश करीत नाही व प्राण्यांचे पालन करते तीच स्त्री प्रशंसनीय असते. ॥ ५ ॥