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अग्ने॑ म॒रुद्भिः॑ शु॒भय॑द्भि॒र्ऋक्व॑भिः॒ सोमं॑ पिब मन्दसा॒नो ग॑ण॒श्रिभिः॑। पा॒व॒केभि॑र्विश्वमि॒न्वेभि॑रा॒युभि॒र्वैश्वा॑नर प्र॒दिवा॑ के॒तुना॑ स॒जूः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne marudbhiḥ śubhayadbhir ṛkvabhiḥ somam piba mandasāno gaṇaśribhiḥ | pāvakebhir viśvaminvebhir āyubhir vaiśvānara pradivā ketunā sajūḥ ||

पद पाठ

अग्ने॑। म॒रुत्ऽभिः॑। शु॒भय॑त्ऽभिः। ऋक्व॑ऽभिः। सोम॑म्। पि॒ब॒। म॒न्द॒सा॒नः। ग॒ण॒श्रिऽभिः॑। पा॒व॒केभिः॑। वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वेभिः॑। आ॒युऽभिः॑। वैश्वा॑नर। प्र॒ऽदिवा॑। के॒तुना॑। स॒ऽजूः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:60» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:8 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों की सेवा करना अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (गणश्रिभिः) समुदाय की लक्ष्मियों से (मन्दसानः) आनन्द करता हुआ (प्रदिवा) अत्यन्त प्रकाशवाली (केतुना) बुद्धि के साथ (सजूः) तुल्य प्रीति को सेवनेवाले (वैश्वानर) सब में मुख्य आप (शुभयद्भिः) उत्तम आचरण करनेवाले (ऋक्वभिः) सत्कार करने योग्य (पावकेभिः) पवित्र (विश्वमिन्वेभिः) सम्पूर्ण संसार के व्यवहार को प्राप्त कराते हुए (आयुभिः) जीवनों में (मरुद्भिः) मनुष्यों के साथ (सोमम्) बड़ी औषधियों के रस का (पिब) पान करिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों की योग्यता है कि सदा यथार्थवक्ता विद्वानों के साथ मिलकर विद्या, अवस्था और बुद्धि को बढ़ाकर औषध के सदृश आहार और विहार को करके उत्तम आचरण सर्वदा करें ॥८॥ इस सूक्त में वायु, अग्नि और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह साठवाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वत्सेवनमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! गणश्रिभिर्मन्दसानः प्रदिवा केतुना सजूर्वैश्वानर त्वं शुभयद्भिर्ऋक्वभिः पावकेभिर्विश्वमिन्वेभिरायुभिर्मरुद्भिः सह सोमं पिब ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) विद्वन् (मरुद्भिः) मनुष्यैः (शुभयद्भिः) शुभमाचरद्भिः (ऋक्वभिः) सत्कर्त्तव्यैः (सोमम्) महौषधिरसम् (पिब) (मन्दसानः) आनन्दन् (गणश्रिभिः) समुदायलक्ष्मीभिः (पावकेभिः) पवित्रैः (विश्वमिन्वेभिः) सर्वं जगद्व्यवहारं प्रापयद्भिः (आयुभिः) जीवनैः (वैश्वानर) विश्वेषु सर्वेषु नायक (प्रदिवा) प्रकृष्टप्रकाशवता (केतुना) प्रज्ञया सह (सजूः) समानप्रीतिसेवी ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्याणां योग्यतास्ति सदाऽऽप्तैर्विद्वद्भिस्सह सङ्गत्य विद्यायुः प्रज्ञा वर्धयित्वौषधवदाहारविहारौ च विधाय शुभाचरणं सर्वदा कुर्युरिति ॥८॥ अत्र वाय्वग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्टितमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सदैव विद्वानांच्या साह्याने विद्या, आयुष्य व बुद्धी वाढवून औषधींप्रमाणे आहारविहार करून सदैव उत्तम आचरण करावे. ॥ ८ ॥