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प्र वः॒ स्पळ॑क्रन्त्सुवि॒ताय॑ दा॒वनेऽर्चा॑ दि॒वे प्र पृ॑थि॒व्या ऋ॒तं भ॑रे। उ॒क्षन्ते॒ अश्वा॒न्तरु॑षन्त॒ आ रजोऽनु॒ स्वं भा॒नुं श्र॑थयन्ते अर्ण॒वैः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vaḥ spaḻ akran suvitāya dāvane rcā dive pra pṛthivyā ṛtam bhare | ukṣante aśvān taruṣanta ā rajo nu svam bhānuṁ śrathayante arṇavaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। स्पट्। अ॒क्र॒न्। सु॒वि॒ताय॑। दा॒वने॑। अर्च॑। दि॒वे। प्र। पृ॒थि॒व्यै। ऋ॒तम्। भ॒रे॒। उ॒क्षन्ते॑। अश्वा॑न्। तरु॑षन्ते। आ। रजः॑। अनु॑। स्वम्। भा॒नुम्। श्र॒थ॒य॒न्ते॒। अ॒र्ण॒वैः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:59» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आठ ऋचावाले उनसठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वद्गुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (सुविताय) ऐश्वर्य से युक्त और (दावने) देनेवाले के लिए (दिवे) कामना करते हुए के लिए (पृथिव्यै) अन्तरिक्ष वा भूमि के लिये तथा (वः) आप लोगों के लिये (भरे) धारण करते हैं जिसमें उस व्यवहार में (ऋतम्) सत्य को (प्र, अक्रन्) अच्छे प्रकार करते हैं और (अश्वान्) वेग से युक्त अग्नि आदि को (उक्षन्ते) सेवते हैं तथा (तरुषन्ते) शीघ्र प्लवित होते हैं तथा (रजः) लोक के (अनु) पश्चात् (स्वम्) अपनी (भानुम्) कान्ति को (अर्णवैः) समुद्रों वा नदियों से (प्र, आ, श्रथयन्ते) सब प्रकार शिथिल करते हैं, उनका आप लोग सत्कार करिये और हे राजन् (स्पट्) स्पर्श करनेवाले ! आप इनका निरन्तर (अर्चा) सत्कार कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो मनुष्य शिल्पविद्या से विमानादि को रच के अन्तरिक्षादि मार्गों में जा आ कर सब के सुख के लिये ऐश्वर्य्य का आश्रयण करते हैं, वे संसार के विभूषक होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! ये सुविताय दावने दिवे पृथिव्यै वो भर ऋतं प्राक्रन्नश्वानुक्षन्ते तरुषन्ते रजोऽनु स्वं भानुं चार्णवैः प्राश्रथयन्ते तान् यूयं सत्कुरुत। हे राजन् स्पट् ! त्वमेतान् सततमर्चा ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्मभ्यम् (स्पट्) स्पष्टा (अक्रन्) कुर्वन्ति (सुविताय) ऐश्वर्य्यवते (दावने) दात्रे (अर्चा) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवे) कामयमानाय (प्र) (पृथिव्यै) अन्तरिक्षाय भूमये वा (ऋतम्) सत्यम् (भरे) बिभ्रति यस्मिंस्तस्मिन् (उक्षन्ते) सेवन्ते (अश्वान्) वेगवतोऽग्न्यादीन् (तरुषन्ते) सद्यः प्लवन्ते (आ) (रजः) लोकम् (अनु) (स्वम्) स्वकीयम् (भानुम्) दीप्तिम् (श्रथयन्ते) शिथिलीकुर्वन्ति (अर्णवैः) समुद्रैर्नदीभिर्वा ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये मनुष्या शिल्पविद्यया विमानादिकं निर्मायान्तरिक्षादिषु गत्वागत्य सर्वेषां सुखायैश्वर्य्यमाश्रयन्ति ते जगद्विभूषका भवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायू व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन करण्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे राजा! जी माणसे शिल्पविद्येने विमान इत्यादी निर्माण करून अंतरिक्षातून गमनागमन करून सर्वांच्या सुखासाठी ऐश्वर्य प्राप्त करतात ती जगाचे भूषण ठरतात. ॥ १ ॥