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उदी॑रयथा मरुतः समुद्र॒तो यू॒यं वृ॒ष्टिं व॑र्षयथा पुरीषिणः। न वो॑ दस्रा॒ उप॑ दस्यन्ति धे॒नवः॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud īrayathā marutaḥ samudrato yūyaṁ vṛṣṭiṁ varṣayathā purīṣiṇaḥ | na vo dasrā upa dasyanti dhenavaḥ śubhaṁ yātām anu rathā avṛtsata ||

पद पाठ

उत्। ई॒र॒य॒थ॒। म॒रु॒तः॒। स॒मु॒द्र॒तः। यू॒यम्। वृ॒ष्टिम्। व॒र्ष॒य॒थ॒। पु॒री॒षि॒णः॒। न। वः॒। द॒स्राः॒। उप॑। द॒स्य॒न्ति॒। धे॒नवः॑। शुभ॑म्। या॒ताम्। अनु॑। रथाः॑। अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:55» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरीषिणः) बहुत प्रकार का पोषण विद्यमान जिनमें वे (मरुतः) मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग हम लोगों की श्रेष्ठकर्मों में (उत्, ईरयथा) प्रेरणा कीजिये और जैसे पवन (समुद्रतः) अन्तरिक्ष से (वृष्टिम्) वर्षा करते हैं, वैसे आप लोग (वर्षयथा) वर्षाइये जिससे (दस्राः) नाश होनेवाले और (धेनवः) वाणियाँ (वः) आप लोगों को (न) नहीं (उप, दस्यन्ति) उपक्षय करते जैसे (शुभम्) कल्याण को (याताम्) प्राप्त होते हुओं के (रथाः) वाहन (अनु, अवृत्सत) अनुकूल वर्त्तते हैं, वैसे धर्ममार्ग का अनुकूल वर्त्ताव कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमाङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जैसे पवन अन्तरिक्ष से वृष्टि करके सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त करके दुःख का नाश करते हैं, वैसे ही सत्यविद्या के उपदेश की वृष्टि से अविद्यारूप अन्धकार से हुए दुःख का निवारण कीजिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे पुरीषिणो मरुतो ! यूयमस्मान् सत्कर्मसूदीरयथा यथा वायवः समुद्रतो वृष्टिं कुर्वन्ति तथा यूयं वर्षयथा यतो दस्रा धेनवो वो नोप दस्यन्ति यथा शुभं यातां रथा अन्ववृत्सत तथा धर्ममार्गमनुवर्त्तध्वम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) उत्कृष्टे (ईरयथा) प्रेरयथ। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (मरुतः) मनुष्याः (समुद्रतः) अन्तरिक्षात् (यूयम्) (वृष्टिम्) (वर्षयथा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पुरीषिणः) पुरीषं बहुविधं पोषणं विद्यते येषु ते (न) (वः) युष्मान् (दस्राः) उपक्षेतारः (उप) (दस्यन्ति) क्षयन्ति (धेनवः) वाचः (शुभम्) (याताम्) (अनु) (रथाः) (अवृत्सत) ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे विद्वांसो ! यथा वायवोऽन्तरिक्षाद्वष्टिं कृत्वा सर्वान् प्राणिनस्तर्प्पयित्वा दुःखक्षयं कुवन्ति तथैव सत्यविद्यापदेशवृष्ट्याऽविद्यान्धकारदुःखं निवारयन्तु ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जसा वायू अंतरिक्षातून वृष्टी करून संपूर्ण प्राण्यांना तृप्त करतो व दुःख नष्ट करतो तसेच सत्यविद्येच्या उपदेश वृष्टीने अविद्यारूपी अंधकाराने उत्पन्न झालेल्या दुःखाचे निवारण करा. ॥ ५ ॥