तद्वी॒र्यं॑ वो मरुतो महित्व॒नं दी॒र्घं त॑तान॒ सूर्यो॒ न योज॑नम्। एता॒ न यामे॒ अगृ॑भीतशोचि॒षोऽन॑श्वदां॒ यन्न्यया॑तना गि॒रिम् ॥५॥
tad vīryaṁ vo maruto mahitvanaṁ dīrghaṁ tatāna sūryo na yojanam | etā na yāme agṛbhītaśociṣo naśvadāṁ yan ny ayātanā girim ||
तत्। वी॒र्य॑म्। वः॒। म॒रु॒तः॒। म॒हि॒ऽत्व॒नम्। दी॒र्घम्। त॒ता॒न॒। सूर्यः॑। न। योज॑नम्। एताः॑। न। यामे॑। अगृ॑भीतऽशोचिषः। अन॑श्वऽदाम्। यत्। नि। अया॑तन। गि॒रिम् ॥५॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥
हे मरुतः ! सूर्यो योजनं न महित्वनं दीर्घं वस्तद्वीर्यं ततानागृभीतशोचिषो याम एता गतयो नानश्वदां गिरिं ददति। यद्यूयं न्ययातना तत्सर्वं वयं गृह्णीमः ॥५॥