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तं नाक॑म॒र्यो अगृ॑भीतशोचिषं॒ रुश॒त्पिप्प॑लं मरुतो॒ वि धू॑नुथ। सम॑च्यन्त वृ॒जनाति॑त्विषन्त॒ यत्स्वर॑न्ति॒ घोषं॒ वित॑तमृता॒यवः॑ ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ nākam aryo agṛbhītaśociṣaṁ ruśat pippalam maruto vi dhūnutha | sam acyanta vṛjanātitviṣanta yat svaranti ghoṣaṁ vitatam ṛtāyavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। नाक॑म्। अ॒र्यः। अगृ॑भीतऽशोचिषम्। रुश॑त्। पिप्प॑लम्। म॒रु॒तः॒। वि। धू॒नु॒थ॒। सम्। अ॒च्य॒न्त॒। वृ॒जना॑। अति॑त्विषन्त। यत्। स्वर॑न्ति। घोष॑म्। विऽत॑तम्। ऋ॒त॒ऽयवः॑ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:54» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) वायु के सदृश वेगयुक्त वर्त्तमान जनो ! आप लोग (अर्यः) स्वामी ईश्वर के सदृश (ऋतायवः) अपने सत्य की इच्छा करते हुए (यत्) जिस (विततम्) विस्तृत (घोषम्) वाणी का (स्वरन्ति) उच्चारण करते हैं (तम्) उस (अगृभीतशोचिषम्) अगृभीतशोचिषम् अर्थात् नहीं ग्रहण की स्वच्छता जिसमें ऐसे (रुशत्) अच्छे स्वरूपवाले (पिप्पलम्) फलभोगरूप (नाकम्) दुःखरहित आनन्द को (सम्, अच्यन्त) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये दुःख को (वि) विशेष करके (धूनुथ) कम्पाइये और (वृजना) चलते हैं जिनसे उनको (अतित्विषन्त) प्रकाशित कीजिये तथा प्रकाशित हूजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ईश्वर के सदृश न्यायकारी सम्पूर्ण जगत् के उपकार करनेवाले और उपदेशक हैं, वे संसार के भूषक हैं ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! यूयमर्य इव ऋतायवो यद्विततं घोषं स्वरन्ति तमगृभीतशोचिषं रुशत् पिप्पलं नाकं समच्यन्त दुःखं वि धूनुथ वृजनातित्विषन्त ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (अर्यः) स्वामीश्वरः (अगृभीतशोचिषम्) न गृहीतं शोचिर्यस्मिंस्तम् (रुशत्) सुस्वरूपम् (पिप्पलम्) फलभोगम् (मरुतः) वायुरिव वर्त्तमानाः (वि) विशेषेण (धूनुथ) कम्पयथ (सम्) (अच्यन्त) सम्यक् प्राप्नुत (वृजना) वृजन्ति यैस्तानि (अतित्विषन्त) प्रदीपयत प्रकाशिता भवत (यत्) यम् (स्वरन्ति) उच्चरन्ति (घोषम्) वाचम् (विततम्) विस्तृतम् (ऋतायवः) आत्मन ऋतमिच्छवः ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्या ईश्वरवन्न्यायकारिणो जगदुपकारकाः उपदेशकाः सन्ति ते जगद्भूषका वर्त्तन्ते ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ईश्वराप्रमाणे न्यायी, संपूर्ण जगाला उपकारक व उपदेशक असतात ती जगाचे भूषण ठरतात. ॥ १२ ॥