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अर्ह॑न्तो॒ ये सु॒दान॑वो॒ नरो॒ असा॑मिशवसः। प्र य॒ज्ञं य॒ज्ञिये॑भ्यो दि॒वो अ॑र्चा म॒रुद्भ्यः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arhanto ye sudānavo naro asāmiśavasaḥ | pra yajñaṁ yajñiyebhyo divo arcā marudbhyaḥ ||

पद पाठ

अर्ह॑न्तः। ये। सु॒ऽदान॑वः। नरः॑। असा॑मिऽशवसः। प्र। य॒ज्ञम्। य॒ज्ञिये॑भ्यः। दि॒वः। अ॒र्च॒। म॒रुत्ऽभ्यः॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:52» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (ये) जो (यज्ञियेभ्यः) यज्ञ करनेवालों के लिये (यज्ञम्) सत्कार नामक कर्म्म की (अर्हन्तः) योग्यता को प्राप्त होते हुए (सुदानवः) उत्तम दान देनेवाले (असामिशवसः) अखण्डित बलयुक्त (नरः) जन (दिवः) कामना करते हुए (मरुद्भ्यः) मनुष्यों के लिये सत्कार नामक कर्म्म को सिद्ध करते हैं, उनका आप (प्र, अर्चा) सत्कार करिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जितने बल बढ़ाने की इच्छा करें, उतना ही बढ़ सकता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यज्ञियेभ्यो यज्ञमर्हन्तः सुदानवोऽसामिशवसो नरो दिवो मरुद्भ्यो यज्ञं साध्नुवन्ति ताँस्त्वं प्रार्चा ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्हन्तः) योग्यतां प्राप्नुवन्तः (ये) (सुदानवः) उत्तमदानाः (नरः) (असामिशवसः) अखण्डितबलाः (प्र) (यज्ञम्) सत्काराख्यं कर्म (यज्ञियेभ्यः) यज्ञसम्पादकेभ्यः (दिवः) कामयमानाः (अर्चा) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मरुद्भ्यः) मनुष्येभ्यः ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या यावद्बलं वर्द्धितुमिच्छेयुस्तावदेव वर्द्धितुं शक्यम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी जितके बल वाढविण्याची इच्छा केली जाते तितके बल वाढू शकते. ॥ ५ ॥