ते स्य॒न्द्रासो॒ नोक्षणोऽति॑ ष्कन्दन्ति॒ शर्व॑रीः। म॒रुता॒मधा॒ महो॑ दि॒वि क्ष॒मा च॑ मन्महे ॥३॥
te syandrāso nokṣaṇo ti ṣkandanti śarvarīḥ | marutām adhā maho divi kṣamā ca manmahe ||
ते। स्य॒न्द्रासः॑। न। उ॒क्षणः॑। अति॑। स्क॒न्द॒न्ति॒। शर्व॑रीः। म॒रुता॑म्। अध॑। महः॑। दि॒वि। क्ष॒मा। च॒। म॒न्म॒हे॒ ॥३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे विद्वन् ! ये महो दिवि मरुतां सन्निधौ क्षमाऽधा च स्यन्द्रासो नोक्षणः शर्वरीरति ष्कन्दन्ति तान्वयं मन्महे ते सर्वैर्मनुष्यैर्विज्ञातव्याः ॥३॥