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स॒प्त मे॑ स॒प्त शा॒किन॒ एक॑मेका श॒ता द॑दुः। य॒मुना॑या॒मधि॑ श्रु॒तमुद्राधो॒ गव्यं॑ मृजे॒ नि राधो॒ अश्व्यं॑ मृजे ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sapta me sapta śākina ekam-ekā śatā daduḥ | yamunāyām adhi śrutam ud rādho gavyam mṛje ni rādho aśvyam mṛje ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒प्त। मे॒। स॒प्त। शा॒किनः॑। एक॑म्ऽएका। श॒ता। द॒दुः॒। य॒मुना॑याम्। अधि॑। श्रु॒त॒म्। उत्। राधः॑। गव्य॑म्। मृ॒जे॒। नि। राधः॑। अश्व्य॑म्। मृ॒जे॒ ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:52» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:7 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (राधः) धन को (यमुनायाम्) यम और नियमों से अन्वित क्रिया के बीच मैंने (अधि, श्रुतम्) सुना और जो (गव्यम्) गौओं के हित को (उत्, मृजे) उत्तमता से शुद्ध करता हूँ और जो (अश्व्यम्) घोड़ों में श्रेष्ठ (राधः) द्रव्य को (नि) निरन्तर (मृजे) स्वच्छ करता हूँ वह (मे) मेरे (सप्त) सात प्रकार के मनुष्यों के भेद और (शाकिनः) सामर्थ्यवाले (सप्त) सात (एकमेका) एक-एक (शता) सैकड़ों को जो (ददुः) देवें, उसको और उनको आप लोग प्राप्त हूजिये और विशेष करके जानिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में मूढ, मूढतर, मूढतम, विद्वान्, विद्वत्तर, विद्वत्तम और अनूचान ये सात प्रकार के मनुष्य होते हैं ॥१७॥ इस सूक्त में वायु और विश्वेदेव के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बावनवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्राधो यमुनायां मयाधि श्रुतं यद्गव्यमुन्मृजे यदश्व्यं राधो नि मृजे तन्मे सप्त शाकिनः सप्तैकमेका शता ये ददुः तत्ताँश्च यूयं प्राप्नुत विजानीत ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) सप्तविधा मरुद्गणा मनुष्यभेदाः (मे) मम (सप्त) (शाकिनः) शक्तिमन्तः (एकमेका) एकमेकानि (शता) शतानि (ददुः) प्रयच्छेयुः (यमुनायाम्) यमनियमान्वितायां क्रियायाम् (अधि) (श्रुतम्) (उत्) (राधः) धनम् (गव्यम्) गोहितम् (मृजे) शुन्धामि (नि) नितराम् (राधः) द्रव्यम् (अश्व्यम्) अश्वेषु साधु (मृजे) शुन्धामि ॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्र जगति मूढो मूढतरो मूढतमो विद्वान् विद्वत्तरो विद्वत्तमोऽनूचानश्च सप्त सप्तविधा मनुष्या भवन्तीति ॥१७॥ अत्र वायुविश्वेदेवगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विपञ्चाशत्तमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात मूढ, मूढतर, मूढतम तसेच विद्वान, विद्वत्तर, विद्वत्तम व अनुचान अशी सात प्रकारची माणसे असतात. ॥ १७ ॥