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स॒जूर्विश्वे॑भिर्दे॒वेभि॑र॒श्विभ्या॑मु॒षसा॑ स॒जूः। आ या॑ह्यग्ने अत्रि॒वत्सु॒ते र॑ण ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sajūr viśvebhir devebhir aśvibhyām uṣasā sajūḥ | ā yāhy agne atrivat sute raṇa ||

पद पाठ

स॒ऽजूः। विश्वे॑भिः। दे॒वेभिः॑। अ॒श्विऽभ्या॑म्। उ॒षसा॑। स॒ऽजूः। आ। या॒हि॒। अ॒ग्ने॒। अ॒त्रि॒ऽवत्। सु॒ते। र॒ण॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:51» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्नि के समान विद्वान् कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वन् ! जैसे अग्नि (विश्वेभिः) सम्पूर्ण (देवेभिः) पृथिवी आदिकों से (सजूः) संयुक्त तथा (अश्विभ्याम्) प्रकाशित और अप्रकाशित लोकों तथा (उषसा) प्रातःकाल से (सजूः) संयुक्त (सुते) उत्पन्न जगत् में (अत्रिवत्) व्यापक के सदृश है, वैसे (आ, याहि) प्राप्त हूजिये और (रण) उपदेश करिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जो बिजुली सब पदार्थों में व्याप्त है, उसको विशेष करके जानिये ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निरिव विद्वान् कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने विद्वन् ! यथाऽग्निर्विश्वेभिर्देवेभिस्सजूरश्विभ्यामुषसा सजूः सुतेऽत्रिवदस्ति तथाऽऽयाहि रण ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सजूः) संयुक्तः (विश्वेभिः) सर्वैः (देवेभिः) पृथिव्यादिभिः (अश्विभ्याम्) प्रकाशाऽप्रकाशलोकाभ्याम् (उषसा) प्रातर्वेलया (सजूः) संयुक्तः (आ) (याहि) आगच्छ (अग्ने) पावक इव विद्वान् (अत्रिवत्) व्यापकवत् (सुते) उत्पन्ने जगति (रण) उपदिश ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र [उपमा]वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । हे मनुष्या ! या विद्युत्सर्वेषु पदार्थेषु व्याप्ताऽस्ति तां विजानीत ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा, वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी विद्युत सर्व पदार्थात व्याप्त असते तिला विशेष करून जाणा. ॥ ८ ॥