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स्व॒स्ति पन्था॒मनु॑ चरेम सूर्याचन्द्र॒मसा॑विव। पुन॒र्दद॒ताघ्न॑ता जान॒ता सं ग॑मेमहि ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svasti panthām anu carema sūryācandramasāv iva | punar dadatāghnatā jānatā saṁ gamemahi ||

पद पाठ

स्व॒स्ति। पन्था॑म्। अनु॑। च॒रे॒म॒। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ऽइव। पुनः॑। दद॑ता। अघ्न॑ता। जा॒न॒ता। सम्। ग॒मे॒म॒हि॒ ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:51» मन्त्र:15 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को विद्वानों के सङ्ग से जो धर्ममार्ग उससे चलना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश (स्वस्ति) सुख (पन्थाम्) मार्गों के (अनु, चरेम) अनुगामी हों और (पुनः) फिर (ददता) दान करने (अघ्नता) और नहीं नाश करनेवाले (जानता) विद्वान् के साथ (सम्, गमेमहि) मिलें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा नियम से दिनरात्रि चलते हैं, वैसे न्याय के मार्ग को प्राप्त हूजिये और सज्जनों के साथ समागम करिये ॥१५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और सप्तम वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गेन धर्ममार्गेण गन्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

वयं सूर्याचन्द्रमसाविव स्वस्ति पन्थामनु चरेम पुनर्ददताघ्नता जानता सह सङ्गमेमहि ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वस्ति) सुखम् (पन्थाम्) पन्थानाम् (अनु) (चरेम) अनुगच्छेम (सूर्याचन्द्रमसाविव) (पुनः) (ददता) दानकर्त्रा (अघ्नता) अहिंसकेन (जानता) विदुषा (सम्) (गमेमहि) सङ्गच्छेमहि ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यश्चन्द्रश्च नियमेनाहर्निशं गच्छतस्तथा न्यायमार्गं गच्छत सज्जनैः सह समागमं कुरुतेति ॥१५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकपञ्चाशत्तमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसे सूर्य व चंद्र सतत नियमपूर्वक मार्गक्रमण करतात. तसे न्यायमार्गाने क्रमण करा व सज्जनांची संगती धरा. ॥ १५ ॥