कदु॑ प्रि॒याय॒ धाम्ने॑ मनामहे॒ स्वक्ष॑त्राय॒ स्वय॑शसे म॒हे व॒यम्। आ॒मे॒न्यस्य॒ रज॑सो॒ यद॒भ्र आँ अ॒पो वृ॑णा॒ना वि॑त॒नोति॑ मा॒यिनी॑ ॥१॥
kad u priyāya dhāmne manāmahe svakṣatrāya svayaśase mahe vayam | āmenyasya rajaso yad abhra ām̐ apo vṛṇānā vitanoti māyinī ||
कत्। ऊँ॒ इति॑। प्रि॒याय॑। धाम्ने॑। म॒ना॒म॒हे॒। स्वऽक्ष॑त्राय। स्वऽय॑शसे। म॒हे। व॒यम्। आ॒ऽमे॒न्यस्य॑। रज॑सः। यत्। अ॒भ्रे। आ। अ॒पः। वृ॒णा॒ना। वि॒ऽत॒नोति॑। मा॒यिनी॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले अड़तालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥
यद्या आमेन्यस्य रजसो मध्येऽभ्रेऽप आ वृणाना मायिनी सती वितनोति तामु वयं महे प्रियाय धाम्ने स्वक्षत्राय स्वयशसे कन्मनामहे ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वान व राजाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.