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अ॒जि॒रास॒स्तद॑प॒ ईय॑माना आतस्थि॒वांसो॑ अ॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्। अ॒न॒न्तास॑ उ॒रवो॑ वि॒श्वतः॑ सीं॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति॒ पन्थाः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajirāsas tadapa īyamānā ātasthivāṁso amṛtasya nābhim | anantāsa uravo viśvataḥ sīm pari dyāvāpṛthivī yanti panthāḥ ||

पद पाठ

अ॒जि॒रासः॑। तत्ऽअ॑पः। ईय॑मानाः आ॒त॒स्थि॒ऽवांसः॑। अ॒मृत॑स्य। नाभि॑म्। अ॒न॒न्तासः॑। उ॒रवः॑। वि॒श्वतः॑। सी॒म्। परि॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। य॒न्ति॒। पन्थाः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:47» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों का कार्य कारण से विस्तृत अनन्त पदार्थों को जान कर कार्यसिद्धि करनी चाहिये ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अजिरासः) वेग से युक्त (ईयमानाः) प्राप्त होते हुए (तदपः) उनके प्राणों को (अमृतस्य) नाश से रहित कारण के (नाभिम्) मध्य में (आतस्थिवांसः) सब ओर से स्थित (अनन्तासः) नहीं विद्यमान अन्त जिनका वे (उरवः) बहुत (विश्वतः) सब ओर (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (सीम्) सूर्य्य के प्रकाश के सदृश (परि) चारों और (यन्ति) प्राप्त होते हैं उनका (पन्थाः) मार्ग जानना चाहिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो आकाश आदि अनन्त पदार्थ हैं, उनमें वर्त्तमान असंख्य परमाणु और वे कारण के मध्य में कारण से उत्पन्न हुए सूर्य्य और प्रकाश के सदृश विस्तीर्ण हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः कार्य्यकारणसन्तताऽनन्तपदार्थान् विज्ञाय कार्य्यसिद्धिः संपादनीया ॥२॥

अन्वय:

येऽजिरास ईयमानास्तदपोऽमृतस्य नाभिमातस्थिवांसोऽनन्तास उरवो विश्वतो द्यावापृथिवी सीमिव परि यन्ति तेषां पन्था विज्ञातव्यः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अजिरासः) वेगवन्तः (तदपः) तेषां प्राणान् (ईयमानाः) प्राप्नुवन्तः (आतस्थिवांसः) समन्तात् स्थिताः (अमृतस्य) नाशरहितस्य कारणस्य (नाभिम्) मध्ये (अनन्तासः) अविद्यमानोऽन्तो येषान्ते (उरवः) बहवः (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) आदित्यप्रकाश इव (परि) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पन्थाः) मार्गः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये आकाशादयोऽनन्ताः पदार्थास्तत्रस्था असङ्ख्या परमाणवश्च कारणमध्ये कारणतो जाता आदित्यप्रकाशवद्विस्तीर्णाः सन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. आकाशात अनंत पदार्थ आहेत. त्यात असंख्य परमाणू आहेत. ते कारणात (प्रकृतीत) असून कारणापासून उत्पन्न झालेल्या सूर्य व प्रकाशाप्रमाणे पसरलेले आहेत. ॥ २ ॥