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एता॒ धियं॑ कृ॒णवा॑मा सखा॒योऽप॒ या मा॒ताँ ऋ॑णु॒त व्र॒जं गोः। यया॒ मनु॑र्विशिशि॒प्रं जि॒गाय॒ यया॑ व॒णिग्व॒ङ्कुरापा॒ पुरी॑षम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā dhiyaṁ kṛṇavāmā sakhāyo pa yā mātām̐ ṛṇuta vrajaṁ goḥ | yayā manur viśiśipraṁ jigāya yayā vaṇig vaṅkur āpā purīṣam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒त॒। धिय॑म्। कृ॒णवा॑म। स॒खा॒यः। अप॑। या। मा॒ता। ऋ॒णु॒त। व्र॒जम्। गोः। यया॑। मनुः॑। वि॒शि॒ऽशि॒प्रम्। जि॒गाय॑। यया॑। व॒णिक्। व॒ङ्कुः। आप॑। पुरी॑षम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:45» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को उत्तम बुद्धि कैसे प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यया) जिससे (मनुः) मनुष्य (विशिशिप्रम्) सुन्दर ठुढ्ढी और नासिका जिसकी उसको (जिगाय) जीतता है (यया) जिससे (वङ्कुः) धन की इच्छा करनेवाला (वणिक्) व्यापारी वैश्य (पुरीषम्) पूर्ण करनेवाले जल को (आपा) प्राप्त होता है उस (धियम्) बुद्धि को (सखायः) मित्र होते हुए हम लोग (कृणवामा) करें और जैसे (या) जो (माता) माता के सदृश (गोः) किरण से (व्रजम्) मेघ को करता है और दुःख को (अप) दूर करता है, वैसे इसको आप लोग (ऋणुत) सिद्ध करिये और बुद्धि को (आ) सब प्रकार (इता) प्राप्त हूजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्यों को योग्य है कि परस्पर में मित्र होकर बुद्धि को बढ़ाय औरों के लिये विशेष ज्ञान अच्छे प्रकार देवें, जैसे वैश्य धन को प्राप्त होकर बढ़ता है, वैसे उत्तम बुद्धि को पाकर बढ़े ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः प्रज्ञा कथं प्राप्तव्येत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा मनुर्विशिशिप्रं जिगाय यया वङ्कुर्वणिक् पुरीषमापा तां धियं सखायो वयं कृणवामा यथा या माता गोर्व्रजं करोति दुःखमप नयति तथैतं यूयमृणुत धियमेता ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (इता) प्राप्नुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (धियम्) प्रज्ञानम् (कृणवामा) कुर्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सखायः) सुहृदः सन्तः (अप) (या) (माता) जननीव (ऋणुत) साध्नुत (व्रजम्) मेघम् (गोः) किरणात् (यया) (मनुः) मनुष्यः (विशिशिप्रम्) विशीशिप्रे शोभने हनुनासिके यस्य तम् (जिगाय) जयति (यया) (वणिक्) व्यापारी वैश्यः (वङ्कुः) धनेच्छुः (आपा) आप्नोति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पुरीषम्) पूर्तिकरमुदकम्। पुरीषमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१।१२) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । मनुष्याणां योग्यमस्त्यन्योऽन्येषु सखायो भूत्वा बुद्धिं वर्धयित्वाऽन्येभ्यो विज्ञानं प्रददतु यथा वैश्यो धनं प्राप्यैधते तथा प्रज्ञां प्राप्य वर्द्धन्ताम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी एकमेकांचे मित्र बनून बुद्धी वाढवावी व इतरांना विशेष ज्ञान द्यावे. जसे वैश्य धन प्राप्त करून धनिक होतो तसे उत्तम बुद्धी प्राप्त करून उत्कृष्ट व्हावे. ॥ ६ ॥