वांछित मन्त्र चुनें

आ सु॑ष्टु॒ती नम॑सा वर्त॒यध्यै॒ द्यावा॒ वाजा॑य पृथि॒वी अमृ॑ध्रे। पि॒ता मा॒ता मधु॑वचाः सु॒हस्ता॒ भरे॑भरे नो य॒शसा॑वविष्टाम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā suṣṭutī namasā vartayadhyai dyāvā vājāya pṛthivī amṛdhre | pitā mātā madhuvacāḥ suhastā bhare-bhare no yaśasāv aviṣṭām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। सु॒ऽस्तु॒ती। नम॑सा। व॒र्त॒यध्यै॑। द्यावा॑। वाजा॑य। पृ॒थि॒वी इति॑। अमृ॑ध्रे॒ इति॑। पि॒ता। मा॒ता। मधु॑ऽवचाः। सु॒ऽहस्ता॑। भरे॑ऽभरे। नः॒। य॒शसौ॑। अ॒वि॒ष्टा॒म् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:43» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोगों से (वाजाय) विज्ञान के लिये (सुष्टुती) श्रेष्ठ प्रशंसा से (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (अमृध्रे) नहीं हिंसा किये गये में (सुहस्ता) सुन्दर हस्त जिनके वे (यशसौ) यश और धन से युक्त (द्यावा) अन्तरिक्ष और (पृथिवी) पृथिवी (मधुवचाः) मधुर वचन जिसका ऐसा वा (पिता) पिता और (माता) माता के सदृश (भरेभरे) संग्राम संग्राम में (नः) हम लोगों को (अविष्टाम्) प्राप्त होवें, वे (आ, वर्त्तयध्यै) उत्तम प्रकार वर्त्ताव करने को प्राप्त होवें ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे माता और पिता अपने सन्तानों को उत्तम प्रकार शिक्षा देकर और वृद्धि करके विजयकारी करते हैं, वैसे ही प्राप्त हुई सूर्य्य और पृथिवी की विद्या सर्वत्र विजय को प्राप्त होती हैं ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! युष्माभिर्वाजाय सुष्टुती नमसाऽमृध्रे सुहस्ता यशसौ द्यावा पृथिवी मधुवचाः पिता माता चेव भरेभरे नोऽस्मानविष्टां ते आ वर्त्तयध्या अविष्टाम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (सुष्टुती) श्रेष्ठया प्रशंसया (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (वर्त्तयध्यै) वर्त्तयितुम् (द्यावा) द्यौः (वाजाय) विज्ञानाय (पृथिवी) भूमी (अमृध्रे) अहिंसिते (पिता) जनक इव (माता) जननीव (मधुवचाः) मधुवचो यस्य यस्या वा स सा (सुहस्ता) शोभना हस्ता वर्त्तन्ते ययोस्ते (भरेभरे) सङ्ग्रामे सङ्ग्रामे (नः) अस्मान् (यशसौ) कीर्तिधनयुक्ते (अविष्टाम्) प्राप्नुयाताम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा मातापितरौ स्वसन्तानान् सुशिक्ष्य वर्धयित्वा विजयकारिणः सम्पादयतस्तथैव प्राप्ता सूर्य्यपृथिवीविद्या सर्वत्र विजयं प्रापयति ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे माता-पिता आपल्या संतानांना सुशिक्षित करून वाढवितात व विजयी करवितात तसेच सूर्य व पृथ्वीबाबतची विद्याप्राप्ती सर्वत्र विजय करविते. ॥ २ ॥