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उदी॑रय क॒वित॑मं कवी॒नामु॒नत्तै॑नम॒भि मध्वा॑ घृ॒तेन॑। स नो॒ वसू॑नि॒ प्रय॑ता हि॒तानि॑ च॒न्द्राणि॑ दे॒वः स॑वि॒ता सु॑वाति ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud īraya kavitamaṁ kavīnām unattainam abhi madhvā ghṛtena | sa no vasūni prayatā hitāni candrāṇi devaḥ savitā suvāti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। ई॒र॒य॒। क॒विऽत॑मम्। क॒वी॒नाम्। उ॒नत्त॑। ए॒न॒म्। अ॒भि। मध्वा॑। घृ॒तेन॑। सः। नः॒। वसू॑नि। प्रऽय॑ता। हि॒तानि॑। च॒न्द्राणि॑। दे॒वः। स॒वि॒ता। सु॒वा॒ति॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:42» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे खेत बोनेवाले जन (मध्वा) मधुर (घृतेन) जल से क्षेत्र आदि सींच कर अन्नादिकों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही (एनम्) इस (कवीनाम्) बुद्धिमानों के मध्य में (कवितमम्) अत्यन्त बुद्धिमान् को (उत्, ईरय) उत्तमता से प्रेरणा देओ तथा (अभि, उनत्त) अभ्युदय के अर्थ विद्या और उत्तम शिक्षा से सींचो और हे विद्वन् ! जिस कवियों के मध्य में श्रेष्ठ कवि की प्रेरणा करो (सः) वह (सविता) विद्या और ऐश्वर्य्य का करनेवाला (देवः) विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (प्रयता) प्रयत्न से सिद्ध होने योग्य (चन्द्राणि) आनन्द के देनेवाले सुवर्ण आदि (हितानि) हितकारक (वसूनि) द्रव्यों को (सुवाति) देवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् अध्यापक पुरुषो ! आप लोग जो निश्चय करके सब से उत्तम, सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त, श्रेष्ठ विद्वान् होवे, उसको गृहाश्रम न कर, ऐसा उपदेश दीजिये। जिससे संसार में वर्त्तमान मनुष्यों का बड़ा सुख बढ़े, क्योंकि जो निश्चय करके पूर्ण विद्यायुक्त होकर गृहाश्रम को करे, वह बहुत व्यापारवान् होने से, वीर्य्य आदि के नाश होने से, थोड़ी अवस्थायुक्त होकर निरन्तर मनुष्यों के हित करने को नहीं समर्थ होवे ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा कृषीवला मध्वा घृतेन क्षेत्रादीनि सिक्त्वा शस्यादीनि लभन्ते तथैवैनं कवीनां कवितममुदीरयाभ्युदयायोनत्त। हे विद्वांसो ! यं कवीनां कवितममुदीरय स सविता देवो नो प्रयता चन्द्राणि हितानि वसूनि सुवाति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (ईरय) प्रेरयत (कवितमम्) अतिशयेन मेधाविनम् (कवीनाम्) मेधाविनाम् (उनत्त) विद्यासुशिक्षाभ्यां सिञ्चत (एनम्) (अभि) आभिमुख्ये (मध्वा) मधुरेण (घृतेन) उदकेनेव (सः) (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) द्रव्याणि (प्रयता) प्रयत्नसाध्यानि (हितानि) हितकराणि (चन्द्राणि) आनन्दप्रदानि सुवर्णादीनि (देवः) विद्वान् (सविता) विद्यैश्वर्य्यकारकः (सुवाति) सुवेत् प्रयच्छेत् ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसोऽध्यापका यो हि सर्वेभ्य उत्तमोऽखिलविद्योऽनूचानो विद्वान् भवेत्तं गृहाश्रमं मा कुर्वित्युपदिशत। येन संसारस्थमनुष्याणां महत्सुखं वर्धेत, कुतो यो हि पूर्णविद्यो भूत्वा गृहाश्रमं बहुव्यापारवत्त्वेन वीर्य्यादिक्षयादल्पायुर्भूत्वा सततं मनुष्यहितं कर्त्तुं न शक्नुयात् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वान अध्यापकांनो! जो निश्चयपूर्वक सर्वात उत्तम संपूर्ण विद्यांनी युक्त श्रेष्ठ विद्वान असेल त्याने गृहस्थाश्रम स्वीकारू नये, असा तुम्ही उपदेश करा. ज्यामुळे जगातील माणसांचे सुख वाढेल. कारण जो निश्चयपूर्वक पूर्ण विद्या शिकून गृहस्थाश्रमी बनेल तर व्यापारी होईल. वीर्याचा नाश करून अल्पायुषी ठरेल व निरंतर माणसांचे हित करण्यास समर्थ होऊ शकणार नाही. ॥ ३ ॥