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उप॑ व॒ एषे॒ वन्द्ये॑भिः शू॒षैः प्र य॒ह्वी दि॒वश्चि॒तय॑द्भिर॒र्कैः। उ॒षासा॒नक्ता॑ वि॒दुषी॑व॒ विश्व॒मा हा॑ वहतो॒ मर्त्या॑य य॒ज्ञम् ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa va eṣe vandyebhiḥ śūṣaiḥ pra yahvī divaś citayadbhir arkaiḥ | uṣāsānaktā viduṣīva viśvam ā hā vahato martyāya yajñam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। वः॒। एषे॑। वन्द्ये॑भिः। शू॒षैः। प्र। य॒ह्वी इति॑। दि॒वः। चि॒तय॑त्ऽभिः। अ॒र्कैः। उ॒षासा॒नक्ता॑। वि॒दुषी॑ऽइ॒वेति॑ वि॒दुषी॑व। विश्व॑म्। आ। ह॒। व॒ह॒तः॒। मर्त्या॑य। य॒ज्ञम् ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (दिवः) विद्या के प्रकाशों के (चितयद्भिः) जनाते हुए (अर्कैः) सत्कार करने योग्य विद्वानों के साथ और (वन्द्येभिः) स्तुति करने योग्य (शूषैः) बलों के साथ (यह्वी) बड़ी (विदुषीव) पूर्णविद्यायुक्त स्त्री के तुल्य जो (उषसानक्ता) रात्रि और दिन (वः) आप लोगों के (उप, एषे) समीप प्राप्त होने को (मर्त्याय) मनुष्य के सुख के लिये (विश्वम्) सम्पूर्ण (यज्ञम्) विद्या के प्रचार आदि को (हा) निश्चय (प्र, आ, वहतः) सब प्रकार धारण करते हैं, उनकी सेवन की विद्या को आप लोग जानें ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे बड़ी विद्यायुक्त स्त्री सब जगह विद्यायुक्त स्त्रियों और विद्वानों में सत्कारयुक्त हो और सम्पूर्ण उत्तम गुणों को धारण करके विद्यायुक्त पति आदि की वृद्धि करती है, वैसे ही रात्रि और दिन सब व्यवहारों को धारण करके सब जगत् की वृद्धि करते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! दिवश्चितयद्भिरर्कैर्वन्द्येभिः शूषैश्च सह यह्वी विदुषीव ये उषासानक्ता व उपैषे मर्त्याय विश्वं यज्ञं हा प्रा वहतस्तत्सेवनविद्यां यूयं विजानीत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (वः) युष्मान् (एषे) एतुं प्राप्तुम् (वन्द्येभिः) वन्दितुं स्तोतुं योग्यैः (शूषैः) बलैः (प्र) (यह्वी) महती (दिवः) विद्याप्रकाशान् (चितयद्भिः) ज्ञापयद्भिः (अर्कैः) पूजनीयैर्विद्वद्भिस्सह (उषासानक्ता) रात्रिदिने (विदुषीव) पूर्णविद्या स्त्रीव (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (हा) किल। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वहतः) धरतः (मर्त्याय) मनुष्यसुखाय (यज्ञम्) विद्याप्रचारादिकम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा महाविदुषी स्त्री सर्वत्र विदुषीषु विद्वत्सु च सत्कृता भूत्वा सर्वानुत्तमान् गुणान् धृत्वा विदुषः पत्यादीनुन्नयति तथैव रात्रिदिने सर्वान् व्यवहारान् धृत्वा सर्वं जगद्वर्धयतः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा अत्यंत विदुषी स्त्रीचा विद्वानांमध्ये व विदुषी स्त्रियांमध्ये सत्कार होतो. ती संपूर्ण गुणांनी युक्त होऊन विद्वान पतीची उन्नती करते. तसेच रात्र व दिवस सर्व व्यवहार करून सर्व जगाची वृद्धी करतात. ॥ ७ ॥