क॒था म॒हे रु॒द्रिया॑य ब्रवाम॒ कद्रा॒ये चि॑कि॒तुषे॒ भगा॑य। आप॒ ओष॑धीरु॒त नो॑ऽवन्तु॒ द्यौर्वना॑ गि॒रयो॑ वृ॒क्षके॑शाः ॥११॥
kathā mahe rudriyāya bravāma kad rāye cikituṣe bhagāya | āpa oṣadhīr uta no vantu dyaur vanā girayo vṛkṣakeśāḥ ||
क॒था। म॒हे। रु॒द्रिया॑य। ब्र॒वा॒म॒। क॒त्। रा॒ये। चि॒कि॒तुषे॑। भगा॑य। आपः॑। ओषधीः। उ॒त। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। द्यौः। वना॑। गि॒रयः॑। वृ॒क्षऽके॑शाः ॥११॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे विद्वांसो ! मनुष्या आप ओषधीर्वृक्षकेशा गिरय उत द्यौर्वनेव नोऽवन्तु तत्सहायेन वयं महे चिकितुषे रुद्रियाय कथा ब्रवाम राये भगाय कद् ब्रवाम ॥११॥