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देवता: इन्द्र: ऋषि: अत्रिः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः

ऋ॒जी॒षी व॒ज्री वृ॑ष॒भस्तु॑रा॒षाट्छु॒ष्मी राजा॑ वृत्र॒हा सो॑म॒पावा॑। यु॒क्त्वा हरि॑भ्या॒मुप॑ यासद॒र्वाङ्माध्यं॑दिने॒ सव॑ने मत्स॒दिन्द्रः॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛjīṣī vajrī vṛṣabhas turāṣāṭ chuṣmī rājā vṛtrahā somapāvā | yuktvā haribhyām upa yāsad arvāṅ mādhyaṁdine savane matsad indraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒जी॒षी। व॒ज्री। वृ॒ष॒भः। तु॒रा॒षाट्। शु॒ष्मी। राजा॑। वृ॒त्र॒ऽहा। सो॒म॒ऽपावा॑। यु॒क्त्वा। हरि॑ऽभ्याम्। उप॑। या॒स॒त्। अ॒र्वाङ्। माध्यं॑दिने। सव॑ने। म॒त्स॒त्। इन्द्रः॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:40» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (ऋजीषी) सरल आदि से युक्त (वज्री) शस्त्र और अस्त्रों का धारण करनेवाला (वृषभः) बलिष्ठ (शुष्मी) बलिष्ठ सेना से युक्त (तुराषाट्) हिंसा करनेवाले शत्रुओं को सहने (सोमपावा) श्रेष्ठ ओषधियों के रस को पीने (वृत्रहा) दुष्ट शत्रुओं के नाश करने और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य का करनेवाला (राजा) विद्या और विनय से प्रकाशमान (हरिभ्याम्) घोड़ों से वाहन को (युक्त्वा) युक्त करके (अर्वाङ्) पीछे (उप, यासत्) समीप प्राप्त होवे और (माध्यन्दिने) मध्याह्न में (सवने) भोजन के समय (मत्सत्) आनन्दित होवे, उसी को अधिष्ठाता करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - वही राजा प्रशंसित होवे, जो राज्य के अङ्गों और विद्याओं को ग्रहण करके प्रजापालन के लिये प्रयत्न करे ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य ऋजीषी वज्री वृषभः शुष्मी तुराषाट् सोमपावा वृत्रहेन्द्रो राजा हरिभ्यां यानं युक्त्वाऽर्वाङुप यासन्माध्यन्दिने सवने मत्सत्तमेवाऽधिष्ठातारं कुर्वन्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋजीषी) सरलादियुक्तः (वज्री) शस्त्रास्त्राभृत् (वृषभः) बलिष्ठः (तुराषाट्) तुरान् हिंसकान् शत्रून् सहते (शुष्मी) शुष्मं बलिष्ठं सैन्यं विद्यते यस्य सः (राजा) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (वृत्रहा) दुष्टशत्रुहन्ता (सोमपावा) श्रेष्ठौषधिरसस्य पाता (युक्त्वा) (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (उप) (यासत्) उपागच्छेत् (अर्वाङ्) पश्चात् (माध्यन्दिने) मध्याह्ने (सवने) भोजनसमये (मत्सत्) आनन्देत् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यकर्त्ता ॥४॥
भावार्थभाषाः - स एव राजा प्रशस्तः स्याद्यो राज्याङ्गानि विद्याश्च गृहीत्वा प्रजापालनाय प्रयतेत ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राज्याच्या सर्व अंगांना व विद्यांना ग्रहण करून प्रजापालनाचा प्रयत्न करतो तोच राजा प्रशंसनीय असतो. ॥ ४ ॥