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यस्त्वा॑ हृ॒दा की॒रिणा॒ मन्य॑मा॒नोऽम॑र्त्यं॒ मर्त्यो॒ जोह॑वीमि। जात॑वेदो॒ यशो॑ अ॒स्मासु॑ धेहि प्र॒जाभि॑रग्ने अमृत॒त्वम॑श्याम् ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas tvā hṛdā kīriṇā manyamāno martyam martyo johavīmi | jātavedo yaśo asmāsu dhehi prajābhir agne amṛtatvam aśyām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। त्वा॒। हृ॒दा। की॒रिणा॑। मन्य॑मानः॒। अम॑र्त्यम्। मर्त्यः॑। जोह॑वीमि। जात॑ऽवेदः। यशः॑। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। प्र॒जाभिः॑। अ॒ग्ने॒। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। अ॒श्या॒म् ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:4» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जातवेदः) विज्ञान से युक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्तमान राजन् ! (यः) जो (मन्यमानः) जानता हुआ (मर्त्यः) मनुष्य मैं (हृदा) अन्तःकरण और (कीरिणा) स्तुति करनेवाले से (अमर्त्यम्) मरणधर्म्म से रहित (त्वा) आपकी (जोहवीमि) अत्यन्त स्पर्द्धा करूँ और जैसे (प्रजाभिः) पालन करने योग्य प्रजाओं के साथ (अमृतत्वम्) मोक्षभाव को (अश्याम्) प्राप्त होऊँ, वैसे (अस्मासु) हम लोगों में (यशः) कीर्त्ति को (धेहि) धरिये, स्थापन कीजिये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जैसे प्रजायें राजा के हित को सिद्ध करती हैं, वैसे ही राजा प्रजा के सुख की इच्छा करें। इस प्रकार परस्पर प्रीति से अतुल सुख को प्राप्त होवें ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे जातवेदोऽग्ने ! यो मन्यमानो मर्त्योऽहं हृदा कीरिणामर्त्यं त्वा जोहवीमि यथा प्रजाभिः सहाऽमृतत्वमश्यां तथाऽस्मासु यशो धेहि ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (त्वा) त्वाम् (हृदा) (कीरिणा) स्तावकेन। कीरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६)। (मन्यमानः) विजानन् (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहितम् (मर्त्यः) मनुष्यः (जोहवीमि) भृशं स्पर्द्धे (जातवेदः) जातविज्ञान (यशः) कीर्त्तिम् (अस्मासु) (धेहि) (प्रजाभिः) पालनीयाभिस्सह (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान राजन् (अमृतत्वम्) मोक्षभावम् (अश्याम्) प्राप्नुयाम् ॥१०॥
भावार्थभाषाः - यथा प्रजा राजहितं साध्नुवन्ति तथैव राजा प्रजासुखमिच्छेदेवं परस्परप्रीत्याऽतुलं सुखं प्राप्नुवन्तु ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी प्रजा राजाचे हित करते तसे राजाने प्रजेचे सुख इच्छावे. या प्रकारे परस्पर प्रीतीने अमाप सुख प्राप्त करावे. ॥ १० ॥