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यस्ते॒ साधि॒ष्ठोऽव॑स॒ इन्द्र॒ क्रतु॒ष्टमा भ॑र। अ॒स्मभ्यं॑ चर्षणी॒सहं॒ सस्निं॒ वाजे॑षु दु॒ष्टर॑म् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas te sādhiṣṭho vasa indra kratuṣ ṭam ā bhara | asmabhyaṁ carṣaṇīsahaṁ sasniṁ vājeṣu duṣṭaram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। ते॒। साधि॑ष्ठः। अव॑से। इन्द्र॑। क्रतुः॑। तम्। आ। भ॒र॒। अ॒स्मभ्य॑म्। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्। सस्नि॑म्। वाजे॑षु। दु॒स्तर॑म् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:35» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आठ ऋचावाले पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का वर्णन करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश न्याय से प्रकाशित राजन् (यः) जो (ते) आपकी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (साधिष्ठः) अत्यन्त श्रेष्ठ (क्रतुः) बुद्धि है (तम्) उस (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को सहनेवाले (सस्निम्) ब्रह्मचर्य्यव्रत और विद्या के ग्रहण से पवित्र (वाजेषु) और संग्रामों में (दुष्टरम्) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य को (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (आ, भर) सब प्रकार धारण करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - वही राजा उत्तम होवे जो दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से यथार्थवक्ता जनों से विद्या और विनय को ग्रहण करके न्याय से राज्य की शिक्षा देवे ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रगुणानाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्तेऽवसे साधिष्ठः क्रतुरस्ति तं चर्षणीसहं सस्निं वाजेषु दुष्टरमस्मभ्यमा भर ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (ते) तव (साधिष्ठः) अतिशयेन साधुः (अवसे) रक्षणाद्याय (इन्द्र) सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशित राजन् (क्रतुः) प्रज्ञा (तम्) (आ) (भर) धर (अस्मभ्यम्) (चर्षणीसहम्) मनुष्याणां सोढारम् (सस्निम्) ब्रह्मचर्य्यव्रतविद्याग्रहणाभ्यां पवित्रम् (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (दुष्टरम्) दुःखेनोल्लङ्घयितुं योग्यम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - स एव राजोत्तमः स्याद्यो दीर्घेण ब्रह्मचर्य्येणाप्तेभ्यो विद्याविनयौ गृहीत्वा न्यायेन राज्यं शिष्यात् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो दीर्घ ब्रह्मचर्य पाळून आप्त विद्वानाकडून विनयाने विद्या ग्रहण करून न्यायपूर्वक राज्याचे शिक्षण देतो तोच राजा उत्तम असतो. ॥ १ ॥